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________________ उपनय कथाएँ ३११ कनकप्रभा (३६) अवतंसा (४०) केतुमती (४१) वज्रसेना (४२) रतिप्रिया (४३) रोहिणी (४४) नवमिका (४५) ह्री (४६) पुष्पवती (४७) भुजगा (४८) भुजंगवती (४६) महाकच्छा (५०) अपराजिता (५१) सुघोषा (५२) विमला (५३) सुस्वरा (५४) सरस्वती (५५) सूर्यप्रभा (५६) आतपा (५७) अचिमाली (५८) प्रभंकरा (५६) चन्द्रप्रभा (६०) दोषीनाभा (६१) अचिमाली (६२) प्रभंकरा (६३) पद्मा (६४) शिवा (६५) सती (६६) अंजू (६७) रोहिणी (६८) नवमिका (६६) अचला (७०) अप्सरा (७१) कृष्णा (७२) कृष्ण रानी (७३) रामा (७४) रामरक्षिता (७५) वसु (७६) वसुगुप्ता (७७) वसुमित्रा (७८) वसुन्धरा । उपसंहार इस प्रकार सम्प्रति कुल ६७ कथाएँ हैं । उनमें कितनी ही कथाएँ तो केवल नाम मात्र की हैं। उन कथाओं में सूचनाओं के अतिरिक्त घटनाओं का अभाव है। भाषा की दृष्टि से इन कथाओं में कितनी ही कथाओं की भाषा तो इतनी लालित्यपूर्ण है कि पाठक को सहसा संस्कृत के कादम्बरी ग्रन्थ का स्मरण हो आता है। इन कथाओं की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इन कथाओं का मूल उद्देश्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, श्रद्धा, इन्द्रियविजय आदि आध्यात्मिक तत्वों का सरल शैली में निरूपण करना है । इन कथाओं में धर्म और वैराग्य का ही विशेष रूप से उपदेश दिया गया है। समस्त कथाओं का आलोड़न करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि कथाओं में विभिन्नता होने पर भी कुछ ऐसी सामान्य प्रवृत्तियाँ है, जो विभिन्नता में भी समानता बनाये हुए हैं। हम स्थूल रूप से उन प्रवृत्तियों को निम्न रूप से विभक्त कर सकते हैं १. शील, सदाचार और संयम का विश्लेषण । २. आत्मा के प्रति निष्ठा और उसके विशोधन के विभिन्न उपाय । ३. मानवता की पुण्य प्रतिष्ठा के लिए जातिभेद और वर्गभेद की निस्सारता का निरूपण करना। ४. उच्च गति की प्राप्ति के लिए आहार विहार की विशुद्धि और स्वयं के पापों की आलोचना । ५. आत्म-संशुद्धि के लिए आलोचना प्रतिक्रमण के साथ ही प्रायश्चित्त और विविध प्रकार के तपों का निरूपण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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