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________________ उपनय कथाएँ ३०६ किया। शकेन्द्र ने मेरा भयंकर अपमान किया हैं। सामानिक देवों ने कहा-आप चिन्तामुक्त हों। असुरेन्द्र ने कहा-जिन महाप्रभु भगवान् महावीर की शरण लेकर मैं बच सका हूँ उनका मेरे पर महान उपकार है, अतः हम सब वहाँ चले । वह अपनो दिव्य ऋद्धि के साथ भगवान् महावीर के पास आया और बत्तीस प्रकार के नाट्य दिखाकर स्व-स्थान को लौट गया । गौतम ने पूछा-भगवन् ! क्या असुरेन्द्र मुक्त होंगे ? भगवान ने उत्तर दिया-हाँ, यह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्त होंगे। ___ स्थानांग में दस आश्चर्यों का वर्णन है । आश्चर्य का अर्थ है-कभी. कभी होने वाली विशेष घटना ! सामान्य रूप से जो घटना नहीं होतो पर अनन्त काल के पश्चात् स्थिति विशेष से जो घटना होती है, उसे आश्चर्य की संज्ञा दी गई है। चमर कभी सौधर्म सभा में जाते नहीं और वे गये, यह आश्चर्य है। (भगवती शतक ३ उद्देशक २) महाशुक्र देवों का आगमन एक बार महाशुक्र देवलोक से दो देव आये और भगवान् महावीर को वन्दना करके बाले-भगवन् ! आपके कितने शिष्य सिद्ध गति को प्राप्त करेंगे ? महाप्रभु महावोर ने उत्तर दिया-मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे । यावत् सभी दुःखों का अन्त करेंगे। गणधर गौतम ने प्रथम ध्यान समाप्त कर द्वितीय ध्यान में प्रवेश करने के पूर्व यह सोचा-ये दो महाऋद्धि और महाप्रभावशाली देव कौन आये हैं ? मैं उन्हें नहीं जानता। ये किस विमान से और किसलिए आये है ? भगवान् महावीर ने गौतम के अन्तर्मानस की बात बताते हुए कहातेरे मन में इस प्रकार के विचार उद्बुद्ध हुए थे, अतः तू उन्हीं देवों से पूछ। गौतम ज्योंही देवों के सामने जाने लगे, देवों ने उठकर गौतम को वन्दन किया और कहा- भगवन् ! हम महाशुक्र नामक सातवें स्वर्ग से आये हैं। हमने भगवान से प्रश्न किया-आपके कितने शिष्य सर्व दुःखों का अन्त कर मुक्त होंगे ? भगवान ने मन से ही उत्तर दिया-मेरे सात सौ शिष्य सिद्धि को वरण करेंगे। गणधर गौतम तथा अन्य शिष्यों को भगवान के दिव्य ज्ञान पर आश्चर्य हुआ। इस लोक में ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी से छिपा हो, वे हस्तामलकवत् सभी पदार्थों को स्पष्ट रूप से जानते देखते हैं। (भगवती शतक ५, उद्देशक ४) ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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