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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
से शक्रेन्द्र को जीत लूंगा। अतः उसने एक लाख योजन का वैक्रिय रूप बनाया शोर अपने शस्त्र को धुमाता हआ तथा गम्भीर गर्जना से देवों को भयभीत करता हुआ सौधर्मेन्द्र पर लपका। उसने एक पैर सौधर्मावतंसक विमान की वेदिका पर रखा और दूसरा पैर सुधर्मा सभा पर । उसने शस्त्र से इन्द्रकील पर तीन बार प्रहार किया और सौधर्मेन्द्र को अपशब्द कहे ।
सौधर्मेन्द्र ने अवधिज्ञान से सब कुछ जान लिया। उसने चमरेन्द्र पर प्रहार करने के लिए वज्र को फेंका। चमरेन्द्र भय से भयभीत बना हुआ अपने शरीर का संकोच करता है और “आपकी शरण है आपकी शरण है" इस प्रकार चिल्लाता हुआ अपना सूक्ष्म रूप बनाकर मेरे पैरों में छिप गया। शकेन्द्र ने देखा--बिना अरिहन्त की शरण के असर यहाँ आ नहीं सकता। यह भगवान् महावीर की शरण लेकर यहाँ आया और पुनः उनकी शरण में पहुँच गया है। वज्र भगवान् के अत्यन्त निकट पहुँच चुका है, केवल चार अंगुल दूर रहने पर शक्रन्द्र ने उसका संहरण कर लिया। शकेन्द्र ने भगवान को वन्दन कर चमरेन्द्र से कहा- तुम भगवान महावीर की असीम कृपा से बच गये हो । अब भयभीत मत बनो। यह कहकर शकेन्द्र अपने स्थान पर लौट गया।
गणधर गौतम ने भगवान से प्रश्न किया-देव, जो दिव्य शक्ति का धनी है, वह किसी पुद्गल को पहले फेंककर फिर उस पुद्गल को पोछे से जाकर पकड़ने में समर्थ है या नहीं ? भगवान ने कहा-वह समर्थ है, क्योंकि जो पुद्गल प्रक्षिप्त किया जाता है उसकी गति पहले शीघ्र होती है तथा बाद में मन्द हो जाती है किन्तु दिव्य ऋद्धि वाले देव की गति पहले भी शीघ्र होती है और बाद में भी।
गौतम ने दूसरी जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन ! यदि देव पीछे से पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है तो शक्र असुरेन्द्र को क्यों नहीं पकड़ सका ? भगवान ने फरमाया-असुरेन्द्र की नीचे जाने की गति तीव्र होती है और ऊपर जाने की गति मन्द और मन्दतर होती है। वैमानिक देवों की ऊर्ध्व गति तीव्र होती है और अधोगति मन्द होती है। असुरेन्द्र एक समय में जितने क्षेत्र नीचे जा सकता है उतने क्षेत्र नीचे जाने में शक्रेन्द्र को दो समय लगते हैं और वज्र को तीन समय लगते हैं। इस कारण से शकेन्द्र असुरेन्द्र को पकड़ने में समर्थ नहीं है।
असुरेन्द्र अपने स्थान पर पहुँचा। उसने सोचा-मैंने ठीक नहीं
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