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उपनय कथाएँ
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पूरण बाल तपस्वी
गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा की-भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को दिव्य देव ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ? भगवान् ने कहा-बेभेल सन्निवेश में 'पूरण' गृहपति था। उसने तामली तापस की तरह धपने ज्येष्ठ पुत्र को गृहभार सँभालाकर 'दानामा' प्रव्रज्या ग्रहण की। बेले के चारणे में चार खण्ड वाला लकड़ी का पात्र लेकर वह भिक्षा के लिए निकलता । प्रथम खण्ड में आने वाली भिक्षा पथिकों को देता, दूसरे खण्ड की भिक्षा कौवे और कुत्तों को खिलाता, तीसरे खण्ड की भिक्षा मछलियों और कछुओं को खिलाता और चतुर्थ खण्ड की भिक्षा स्वयं ग्रहण करता। इस प्रव्रज्या में दान की प्रधानता होने से यह प्रव्रज्या 'दानामा' कहलाती थी। क्योंकि वह तीन खण्डों में से दान दे देता तथा केवल एक खण्ड का ही आहार करता और वह भी दो दिन के बाद में। जब 'पूरण' बालतपस्वी का शरीर अत्यन्त कृश हो गया, उसे यह अनुभव हुआ कि अब मैं साधना करने में समर्थ नहीं हूँ तब उसने पादपोपगमन सथारे के द्वारा अपनी आत्मा को भावित किया। भगवान महावीर ने गौतम से कहा-हे गौतम ! मैं उस समय छद्मस्थ अवस्था में था। मुझे दीक्षा ग्रहण किये हुए ग्यारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे । ग्रामानुग्राम विचरता हुआ मैं 'सुषमापुर' नगर के अशोक वनखण्ड में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर अट्ठम तप कर और एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर कर तथा एक रात्रि को महाप्रतिमा को धरण कर ध्यानस्थ था। उस समय 'पूरण' बालतपस्वी साठ भक्त का अनशनपूर्ण कर 'चमरचंचा' राजधानी में इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने सौधर्म कल्प में शक न्द्र को दिव्य भोग भागते हए अवधिज्ञान से देखा । चमरेन्द्र के मन में आक्रोश पैदा हुआ कि यह कौन है ? सामानिक देवों ने कहा-वे शकेन्द्र हैं । चमरेन्द्र ने कहा-वह दुरात्मा मेरे सिर पर बैठा हुआ है ? सामानिक देवों ने निवेदन किया-शक्रन्द्र ने पूर्व अजित पुण्यों के प्रभाव से यह विपुल ऋद्धि और अतुल पराक्रम प्राप्त किया है। इतना सुनते ही चमरेन्द्र का क्रोध अति प्रबल हो उठा । वह युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हआ। सभी देवों ने ऐसा न करने के लिए आग्रह किया, पर उसने अपना हठ नहीं छोड़ा।
चमरेन्द्र ने सोचा-शक्रेन्द्र महान् पराक्रमी है तो मैं पराजित होकर किसकी शरण लूंगा? वह मेरे पास आया और कहने लगा-मैं अपकी शरण
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