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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
पैदा हुआ तथा सप्त कुव्यसनों का सेवन करने लगा। 'सुदर्शना' नामक वेश्या से वह प्रेम करता था। प्रधान-अमात्य 'सुषेण' भी उस वेश्या पर अनुरक्त था। सुषेण ने एक बार वेश्या के साथ उसे देखा और उस पर कपित हो गया। सुषेण की आज्ञा से एवं पूर्वकृत पाप कर्मों के कारण इन दोनों की यह स्थिति हुई है। इस प्रकार हिंसकवृत्ति व दुराचार के कारण यह अनेक जन्मों में दुःख पायेगा।
यह सत्य है कि किये हुए कर्मों को भोगना पड़ता है। यद्यपि नास्तिक या भौतिकवादी व्यक्तियों को यह विश्वास नहीं होता। : कृतस्य कर्मणो नूनं, परिणामो भविष्यति" व्यक्ति कर्म करने में स्वतन्त्र है किन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। यदि उसे यह ध्यान हो जाये कि मुझे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा तो वह कर्म बांधने से अपने आपको बचाने का प्रयास करेगा।
प्रस्तुत कथानक में यही रहस्य व्यक्त किया गया है । (विपाक सूत्र श्रुत स्कन्ध प्रथम, अध्ययन ४)
बृहस्पतिदत्त
बृहस्पतिदत्त कोशाम्बी के 'सोमदत्त' पुरोहित का पुत्र था। वह पूर्वभव में 'महेश्वरदत्त' नाम का राजपुरोहित था। वह राजा की बलवृद्धि और स्वास्थ्य लाभ के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के बालकों को मारकर नरमेध यज्ञ करता था। जिस पाप के फलस्वरूप वहाँ से मरकर वह पांचवीं नरक में गया और वहां से निकलकर वह 'बृहस्पतिदत्त' हुआ है । राजकुमार का 'बृहस्पतिदत्त' पर अत्यधिक स्नेह था। अतः राजा की मृत्यु के बाद वह राजपुरोहित बना। महारानी पर अनुरक्त हो जाने से राजा ने इसे मृत्यु दण्ड दिया। इस प्रकार पूर्वकृत कर्मों के कारण यह विविध योनियों में परिभ्रमण करता रहेगा।
(विपाक सूत्र श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययन ५) नन्दीवर्धन कुमार
नन्दीवर्द्धन 'श्रीदाम' राजा का पुत्र था। वह पूर्वभव में किसी राजा के यहाँ कोतवाल था । अपराधियों को अत्यधिक ऋ र दण्ड देकर वह आनन्द की अनुभूति करता था। जिस पाप के फलस्वरूप वह भरकर छठी नरक में गया। नरक से निकलकर राजा का पुत्र 'नन्दीवर्द्धन' हुआ।
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