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________________ उपनय कथाएँ ३०३ प्रस्तुत कथानक में यह बात प्रतिपादित की गई है कि हंसते हुए व्यक्ति पाप कृत्य करता है, उसका फल जब प्राप्त होता है तब रो-रोकर भुगतने पर भी वह छूटता नहीं है। (विपाकसूत्र श्रु तस्कन्ध प्रथम, अध्ययन २) अभग्नसेन पाप की दारुण कथा का इसमें चित्रण हुआ है । पुरिमतालशालाटवी चोरपल्ली में 'विजय' नाम का एक तस्कर अधिपति रहता था। उसकी पत्नी का नाम 'खंदसिरी' था। उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम 'अभग्नसेन' रखा गया। गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने उनका पूर्व भव सुनाते हुए कहा-अभग्नसेन पूर्वभव में 'निन्नअ' नामक अण्डों का व्यापारी था । वह कबूतरी, मुर्गी, मोरनी आदि के अण्डों को स्वयं एकत्रित करता, दूसरों से करवाता, फिर उन अण्डों को आग पर तलता, भूनता और उन्हें बेचकर अपना जीविकोपार्जन करता तथा स्वयं अण्डों का भक्षण भी करता था, जिसके फलस्वरूप वह तृतीय नरक में उत्पन्न हुआ और वहाँ से आयु पूर्ण होने पर 'अभानसेन' तस्कर हुआ है । इसने प्रजा के तन, धन, जन का अपहरण कर उन्हें विविध यातनाएँ दी जिससे राजा ने क्रुद्ध होकर पकड़ने के लिए अनेक प्रयास किये, पर वह सफल न हो सका। एक बार विराट उत्सव का आयोजन कर उसे आमंत्रित किया गया। अनेक प्रकार की यातनाएँ देकर उसे शूली पर चढ़ाया गया। पाप का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । (विपाक सूत्र श्रुतस्कन्ध प्रथम, अध्ययन ३) शकट 'शकट' साहजनी ग्राम के 'सूभद्र' नामक सार्थवाह का पूत्र था। गणधर गौतम ने देखा-राजपथ पर अनेक व्यक्तियों से घिरा हुआ एक व्यक्ति खड़ा है और उसके पीछे एक महिला भी। उन दोनों के नाक कटे हुए थे तथा गाढ़ बन्धनों में वे जकड़े हुए भी थे। उच्च स्वर से वे पुकार रहे थे-हम अपने पाप का फल भोग रहे हैं। गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया-ये कौन हैं ? और इन्होंने ऐसा कौन-सा पापकृत्य किया है जिसका ये फल भोग रहे हैं ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा'छगलपुर' नगर में 'छनिक' नामक कसाई था। वह विविध प्रकार के पशुओं का मांस बेचता था। इस पाप के फलस्वरूप वह मरकर चतुर्थ नरक में गया और वहां से निकलकर वैश्य सुभद्र की पत्नी 'भद्रा' की कुक्षि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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