________________
उपनय कथाएँ ३०१
हो जाता है । यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि व्यापारी अश्वों को पकड़ने के लिए जब गये तब बल्लकी, भ्रामरी, कच्छभी, बम्बा, पटभ्रमरी, आदि विविध प्रकार की वीणायें, विविध प्रकार के चित्र, सुगन्धित पदार्थ, गुढ़िया मत्स्यंडिका शक्कर, मत्यसंडिका पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर प्रकार की शर्कराएँ और विविध प्रकार के वस्त्र लेकर पहुँचे थे । इससे यह स्पष्ट है कि भारत में विविध प्रकार की कलायें तथा साधन-सामग्री उलब्ध थीं जो यहाँ की संस्कृति की उन्नति का सहज प्रतीक हैं ।
मृगापुत्र
विपाक सूत्र श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययन प्रथम में मृगापुत्र का कथानक आया है । जैन साहित्य में कर्म सिद्धान्त का बहुत ही विस्तारपूर्वक सांगोपांग वर्णन किया गया है। वह वर्णन जिज्ञासुओं के लिए रसप्रद होने पर भी सहज सुगम नहीं | प्रस्तुत कथानक में कथा के द्वारा इस विषय को बहुत ही सुगम और सुबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है तथा कर्म विपाक की प्ररूपणा की है । मृगापुत्र प्रकृष्ट पापकर्म के उदय से जब रानी के गर्भ में आया तो रानी राजा को अप्रिय हो गई । राजा उसे देखना भी पसन्द नहीं करता । रानी सोचने लगी- मैं राजा की इतनी अधिक प्रिय पात्र थी कि मुझे बिना निहारे राजा को चैन नहीं पड़ता थी । एकाएक यह परि• वर्तन कैसे हो गया ? सम्भव है, गर्भ ने अपना प्रभाव दिखाया हो ! बच्चे का जन्म हुआ। वह अन्धा, बहरा, लूला, लंगड़ा और हुण्डक संस्थानी था । उससे शरीर में हाथ, पैर, कान, नाक आदि अवयवों का अभाव था । केवल उनके चिह्न मात्र थे । मृगादेवी ने उसे घूरे पर फिंकवाना चाहा, पर राजा के समझाने मे उसने उस बालक को गुप्त रूप से भूगृह में रख दिया । उस नगरी में एक जन्मान्ध भिखारी था । उसे निहार कर गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया - भगवान ! क्या किसी स्त्री के कोई बच्चा जन्म से ही अन्धा होता है ? भगवान् के मृगापुत्र की बात बताते हुए कहा- वह लूला, लँगड़ा, अन्धा और बहरा है । प्रभु की आज्ञा से गौतम उसे देखने के लिए पहुँचे । उसके शरीर में से मृत सर्प की तरह भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी । वह जो भी आहार करता, रक्त और मवाद बनाकर बाहर निकलता और उसे वह पुनः खा जाता । उसको देखते ही गणधर गौतम को नारकीय दृश्य स्मरण हो आया । 'भगवान् ने उसके पूर्वभव का वर्णन करते हुए कहा - इस जीव ने पूर्वभव में अनेक पाप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org