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उपनय कथाएँ
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रोहिणीज्ञात
ज्ञाताधर्मकथा श्रु तस्कंध प्रथम, अध्ययन सात में रोहिणीज्ञात का दृष्टान्त है । राजगृह नगर में धन्य सार्थवाह के धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित-ये चार पुत्र थे। उनकी उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी-ये चारों क्रमशः पत्नियां थीं। धन्य सार्थवाह अत्यन्त दूरदर्शी था। जब वह वृद्धावस्था से ग्रसति हो गया तो उसे अपने कुटुम्ब की सुव्यवस्था की चिन्ता हुई। चारों पुत्रवधुओं की परीक्षा के लिए उसने एक समारोह में पांच-पांच शालि के दाने उन्हें दिये और कहा-जब भी मैं माँगू तब मुझे पुनः देना । प्रथम पुत्रवधू ने सोचा-श्वसुरजी की बुद्धि मारी गई है, यही कारण है कि इतना बड़ा समारोह करके केवल पाँच दाने दिये हैं और उस पर भी पूनः लौटाने की बात ! यहाँ दानों की क्या कमी है, वे जब भी मांगेंगे उस समय मैं इन्हें दे दुगी। यह सोचकर उन दानों को उसने फेंक दिया। द्वितीय पुत्रवधू से सोचा-यद्यपि दानों का मूल्य नहीं है तथापि पूज्य श्वसुर का यह दिव्य प्रसाद है, यह सोचकर उसने वे दाने खा लिये। तृतीय पुत्रवधु ने सोचा-किसी विशिष्ट अभिप्राय से ये दाने दिये गये हैं, अतः इन्हें सम्भाल कर रखना उपयुक्त है । चतुर्थ पुत्रवधू बुद्धिमती थी। उसने सोचा-कोई न कोई गूढ़ रहस्य इसमें छिपा हआ है। उसने पाँचों दाने मायके भेज दिये। उसकी सूचना के अनुसार वे दाने खेत में बो दिये गये । पाँच वर्षों में दानों के अम्बार लग गये । पाँच वर्ष के पश्चात् श्रेष्ठी ने दाने माँगे। सभी ने सत्य कह दिया। पहली पुत्रवधु को घर की सफाई का कार्य सौंपा। द्वितीय पुत्रवधू को भोजनशाला का कार्य दिया गया क्योंकि वह खाने में दक्ष थी। तृतीय पुत्रवधू को कोषाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया। चतुर्थ पुत्रवधू ने पाँच दाने मांगने पर जब अनाज का ढेर लगा दिया तो उसे गृहस्वामिनी के पद पर आसीन किया और कहा-तू वस्तुतः यशस्विनी पुत्रवधू है। तेरे कारण ही यह घर फलेगा-फूलेगा।
प्रस्तुत रूपक के माध्यम से शास्त्रकार ने कहा-जो साधक प्रथम पुत्रवधू की भाँति महाव्रतों को ग्रहण करके फक (छोड़) देते हैं, वे इस भव और परभव में सर्वत्र अवहेलना के भाजन होते हैं। जो महाव्रतों को ग्रहण कर सांसारिक उपभोगों में लग जाते हैं, वे भी निन्ता के पात्र हैं । जो साधक रक्षिता की भांति महाव्रतों को सुरक्षा करते हैं वे प्रशंसा के पात्र होते हैं और जो साधक रोहिणी की भाँति सद्गुणों की अभिवृद्धि करता है। वह परमानन्द का भागी बनता है।
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