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________________ २६८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा कूर्म कथानक वाराणसी के बाहर मृतगंगा तीर नामक द्रह (तालाब) था जिसमें रंग-बिरंगे कमल के फल खिल रहे थे । अनेक प्रकार के मच्छ, कच्छप, मगर, ग्राह, प्रभृति जलचर प्राणी उस तालाब में थे । एक समय दो कूर्म तालाब में से बाहर निकले और आसपास आहार की खोज में घूमने लगे। उसी समय दो सियार वहाँ आ पहुँचे । सियारों को देखकर कूर्म भयभीत हुए । उन्होंने अपने पैर, गर्दन और शरीर को छिपा लिया। सियारों की दृष्टि उन कछुओं पर पड़ी। वे उन पर झपटे। छेदन-भेदन करने का बहत कुछ प्रयास किया, पर वे सफल न हो सके। सियार बहुत चालाक जानवर होता है । सियारों ने सोचा-जब तक ये अपने अंगों का गोपन किये हुए रहेंगे तब तक हम इनका बाल भी बांका नहीं कर सकेंगे। अतः हमें चालाकी से काम लेना चाहिए । वे दोनों सियार कर्मों के पास से हट गये और झाड़ी में छिप गए। उन दोनों में से एक कुर्म चंचल प्रकृति का था। उसने धीरे-धीरे अपने अवयव बाहर निकाले । सियार उस पर झपटे और उसे मारकर खा गये। दूसरे कूर्म ने दीर्घकाल तक अपने अंगों को गोपन करके रखा । जब सियार चले गये तब वह शीघ्रता से तालाब में पहुँच गया। सियार उस कूर्म का बाल भी बांका नहीं कर सके । इसी तरह जो साधक अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखता है, उसकी किचित् भी क्षति नहीं होती। (ज्ञाताधर्मकथा श्रु ० १ अ० ४) सूत्रकृतांग में भी अत्यन्त संक्षेप में कर्म के रूपक को साधक के जीवन के साथ निरूपित किया है। श्रीमद् भगवतगीता में भी श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कछुए का दृष्टान्त दिया है । तथागत बुद्ध ने भी साधक के जीवन के लिए कूर्म का रूपक प्रस्तुत किया है । इस तरह कूर्म का रूपक जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में इन्द्रियनिग्रह के लिए दिया गया है । कथा के माध्यम से देने के कारण यह रूपक अत्यन्त प्रभावशाली बन गया है। १. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे। -सूत्रकृतांग, प्र० श्रुत०, अ० ८, गाथा ४२६ २. यदा संहरते चायं कूर्मोगानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । - श्रीमद् भगवद्गीता, २/५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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