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उपनय कथाएँ
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मयूरी के अण्डे
आध्यात्मिक समुत्कर्ष के लिए श्रद्धा की आवश्यकता है। गीता में 'श्रद्धावान् लभते ज्ञान' कहा है । इस विश्व में ज्ञान सबसे महान है। वह ज्ञान श्रद्धा से प्राप्त होता है । भगवान् महावीर ने श्रद्धा को दुर्लभ ही नहीं, किन्तु परम दुर्लभ कहा है। अतः साधक को यह प्रेरणा दी है-"तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहि पवेइयं ।" जिसका चित्त चंचल है, मन डांवाडोल है, वह सिद्धि को वरण नहीं कर सकता। सफलता के लिए श्रद्धा अनिवार्य है।
चम्पा नगरी में जिनदत्त-पुत्र और सागरदत्त-पुत्र ये दो सार्थवाह-पुत्र थे। दोनो अभिन्न मित्र थे । वे धूप-छाया को तरह साथ रहते थे। पर दोनों की वृत्ति एक-दूसरे से विपरीत थी। एक बार वे गणिका देवदत्ता के साथ सुरभि उद्यान में पहुँचे । स्नान, भोजन, संगीत, नृत्य का आनन्द लेते हए वे सघन झाड़ियों में बने हए 'मालूकाकच्छ' में गये। उन्हें यकायक निहार कर एक मयूरी घबराहट से केकारव करती हई वक्ष की शाखा पर जा बैठी। सार्थवाहपुत्रों को वहाँ पर दो अण्डे दिखाई दिये। दोनों ने एकएक अण्डा उठा लिया । सागरदत्तपुत्र का मन शंकालु था, वह पुनः पुनः अण्डे की उलट-पुलट कर देखता कि कब अण्डे में से बच्चा बाहर निकलेगा। बार-बार हिलाने से अण्डा निर्जीव हो गया । जिनदत्त-पुत्र ने वह अण्डा मयूर-पालकों को सौंप दिया । बच्चा हआ। उसे विविध प्रकार की नृत्यकलाएँ सिखाई । सारे नगर में उसकी प्रसिद्धि हो गई।
(ज्ञाता धर्मकथा श्रु. १, अ. ३) प्रस्तुत रूपक के माध्यम से यह बताया है कि 'संशयात्मा विनश्यति' और जो श्रद्धाशील होता है, वह सिद्धि को वरण करता है। इसी तरह चाहें श्रमण हो, चाहें श्रमणी हो, उन्हें श्रद्धानिष्ठ होकर साधना करनी चाहिए। जो श्रद्धा के साथ साधना करता है, वह सफलता को सम्प्राप्त होता है।
इस कथा के वर्णन से यह भी परिज्ञात होता है कि उस युग में भी मानव आज की तरह पशु-पक्षियों को प्रशिक्षण देता था। प्रशिक्षण देने पर पशु-पक्षी गण ऐसी कला प्रदर्शित करते, जिससे दर्शक मन्त्रमुग्ध हो जाते । पशु-पक्षी, जिनका जीवन विकल है, वे भी प्रशिक्षण से कलावान बन सकते हैं। यदि मानव शिक्षण के क्षेत्र में आगे बढ़े तो वह स्व और पर दोनों के जीवन का कल्याण कर सकता है ।
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