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________________ २६६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा कारागृह में बन्द कर दिया गया। विजय तस्कर और धन्ना सार्थवाह दोनों एक ही बेड़ी में बद्ध थे। धन्ना सार्थवाह की पत्नी भद्रा ने बढ़िया भोजन कारागृह में भेजा। धन्ना सार्थवाह जब भोजन करने बैठा तो विजय तस्कर ने उस भोजन में से कुछ पदार्थ खाने के लिये माँगे । धन्ना सार्थवाह अपने पुत्र-घातक को उसमें से भोजन कैसे दे सकता था ? उसने इन्कार कर दिया। जब धन्ना सार्थवाह को मल-मूत्र विसर्जन की बाधा उपस्थित हई तो उन्होंने विजय तस्कर को कहा। क्योंकि वे दोनों एक ही बेड़ी में आबद्ध थे। वे एक दूसरे के बिना जा नहीं सकते थे, अतः विजय चोर ने कहा-मैं तो भूखा-प्यासा हूँ। तुम्हें जाना हो तो जाओ। कुछ समय तक वह मल-मूत्र रोकने का प्रयास करता रहा पर कब तक रोकता ? अन्त में विवश होकर धन्ना सार्थवाह ने विजय चोर को आहारपानी देने का वचन दिया, तब वह साथ में जाने लगा। आहार-पानी लाने का कार्य पंथक अनुचर का था। उसने सेठ को आहार देते हुए देखकर विचार किया-यह कैसा सेठ है ? जो अपने पुत्र के हत्यारे को आहार दे रहा है। उसने सेठानी को कहा। सेठानी को अत्यधिक क्रोध आया कि सेठ पुत्र के हत्यारे का पोषण कर रहे हैं। कुछ समय के बाद सेठ को कारागृह से मुक्ति मिली। वह घर पर पहुँचा किन्तु सेठानी की मुद्रा को देखकर सेठ ने कहा-क्या तुझे मेरा कारागृह से मुक्त होना अच्छा नहीं लगा ? भद्रा सार्थवाही ने कहा-आपने मेरे लाडले लाल के हत्यारे विजय चोर को आहार आदि दिया। यही मेरे कोप का कारण है । श्रोष्ठी ने कहा-कर्तव्य, धर्म या प्रत्युपकार की दृष्टि से नहीं, अपितु मल. मूत्रविसर्जन में सहायक होने की दृष्टि से आहारादि दिया था। यह सुनकर भद्रा को सन्तोष हुआ। प्रस्तुत कथा-प्रसंग को देकर शास्त्रकार ने कहा-सेठ को विवशता से पुत्र-घातक को भोजन देना पड़ा, वैसे ही साधक को संयमनिर्वाह के लिए आहार आदि शरीर को देना पड़ता है। श्रेष्ठो ने तस्कर को अपना परम हितैषी समझ कर भोजन नहीं दिया, पर कार्य-सिद्धि के लिए दिया, वैसे ही श्रमण भी ज्ञान, दर्शन की सिद्धि के लिए आहार ग्रहण करता है। (णाया. १/२) आगम साहित्य में श्रमण के आहार ग्रहण करने के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। उस गुरुतम रहस्य को यहाँ कथा के माध्यम से व्यक्त किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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