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________________ विविध कथाएँ २८९ कूणिक की पत्नी पद्मावती ने सुना । उसने कूणिक से कहा-मेरे पास दोनों अमूल्य वस्तुएँ नहीं है। कूणिक ने उसे कहा-पिताश्री ने पहले से ही उनको सौंप दी हैं। किन्तु रानी के अत्याग्रह से कूणिक ने हल्ल और विहल्ल कुमारों को बुलाकर कहा-हार और हाथी मुझे सौंप दो । उत्तर में उन्होंने निवेदन किया-पूज्य पिताश्री ने हमें दोनों वस्तुएँ दी हैं। हम आपको कैसे दे सकते हैं ? इस उत्तर को सुनकर कूणिक रुष्ट हो गया। समय देखकर वे अपने अन्तःपूर के साथ वैशाली चेटक राजा के पास पहुँच गये । कूणिक को ज्ञात होने पर चेटक को दूत भेजकर हार और हाथी, हल्ल तथा विहल्ल को चम्पा भेजने के लिए कहलाया। चेटक ने सूचन किया-आधा राज हल्ल तथा विहल्ल को दे दो तो मैं हार और हाथी भिजवा दूंगा। कूणिक ने पुनः कहलवाया-हल्ल और विहल्ल मेरी बिना आज्ञा के हार तथा हाथी ले गये हैं, वह मगध की सम्पत्ति है। अतः आप लौटा दें अथवा युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाओ। दूत के अभद्र व्यवहार से और पत्र को पढ़कर चेटक भी उत्तेजित हो गये। उन्होंने गलहत्था देकर उसे निकाल दिया और कहा-मैं अन्याय सहन नहीं कर सकता । शरणागत की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। यदि वह युद्ध के लिए तैयार है तो मैं भी पीछे हटने वाला नहीं हूँ। कूणिक ने अपने काल आदि भाइयों को बुलाकर युद्ध के लिए तैयार होने का आदेश दिया और वे सभी वैशाली पहुँचे। इधर राजा चेटक ने भी काशी के नौ मल्लवी और कौशल के नो लिच्छवी इस प्रकार अठारह गण-राजाओं को बुलाकर मंत्रणा की। सभी ने यही कहा-हार और हाथी को लौटाना उचित नहीं। शरणागत को रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ। कूणिक ने 'गरुड़व्यूह रचा तो राजा चेटक ने 'शकटव्यूह' की रचना की। राजा चेटक भगवान महावीर का परम उपासक था। उसका यह अभिग्रह था-मैं एक दिन में एक से अधिक बाण नहीं चलाऊँगा। उसका बाण अमोघ था। पहले दिन कूणिक की ओर से काल कुमार सेनापति बनकर आया। वह चेटक के बाण से धराशायी हो गया। दूसरे दिन सुकालकुमार, तीसरे दिन महाकाल, चौथे दिन कण्ह, पाँचवें दिन सुकण्ह, छठे दिन महाकण्ह, सातवें दिन वीरकण्ह, आठवें दिन रामकण्ह. नौवें दिन पिउसेणकण्ह और दसवें दिन महासेणकण्ह की क्रमशः राजा चेटक के हाथ से मृत्यु हुई । उस समय भगवान् महावीर चम्पा नगरी में विराज रहे थे। दसों राजकुमारों की माताओं ने भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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