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________________ २८८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा हम पूर्व बता चुके हैं कि राजा बिम्बसार जब धूमगृह में था, उस समय 'अट्ठकथा' के अनुसार उसकी सेवा में रानी 'कोशला' थी । 'इन्साइक्लोपीडिया ऑफ बुद्धिज्म' में रानी का नाम 'खेमा' लिखा है और उसे कौशलदेश की राजकन्या लिखा है । 'थेरीगाथा' के अनुसार वह 'मद्र' देश की थी। अमितायुर्ध्यानसूत्र' के अनुसार रानी का नाम 'वैदेही वासवी' था । डा० राधाकुमुद मुखर्जी का अभिमत है - वैदेही वासवी सम्भव है - चेलना थी । कूणिक राजगृह को छोड़कर चम्पा में आकर बस गया । कूणिक के दो लघुभ्राता थे - हल्ल और विहल्ल । निरयावलिका की टीका, भगवती की टीका और भरतेश्वर बाहुल्ली वृत्ति में हल्ल और विहल्ल ये दो नाम आये हैं । अनुत्तरोपपातिक में 'विहल्ल' और 'वेहायस' चेलना के पुत्र बताये हैं और हल्ल को धारिणी का पुत्र लिखा है । निरयावलिकावृत्ति और भगवतीवृत्ति में 'हल्ल' और 'विहल्ल' दोनों चेलना के पुत्र कहे हैं । शोधार्थियों के लिए यह विषय अन्वेषणीय है । राजा श्रेणिक ने अपनी प्रसन्नता से 'सेचनक' हस्ती और देव द्वारा दिया गया 'अठारहसरा हार' हल्ल और विहल्ल को दे दिये । उत्तराध्ययनचूणि, आवश्यकचूर्णि आदि में इनकी उत्पत्ति की रोचक घटना है । आवश्यकचूर्णि के अनुसार इन दोनों वस्तुओं का मूल्य श्रेणिक के सम्पूर्ण राज्य के बराबर था । " विहल्लकुमार 'सेचनक' हस्ति पर आरूढ़ होकर अपने अन्तःपुर के साथ गंगा तट पर जाता और हाथी सूँड पर लेकर कभी रानी को उछालता तो कभी विहल्ल को । कभी दाँतों पर लेकर सूड़ से जल की वर्षा करता । इस प्रकार उनकी विविध क्रीड़ाओं को देखकर नगर में यह चर्चा होने लगी कि राजश्री का सच्चा उपभोग विहल्लकुमार कर रहा है । १ Encyclopaedia of Buddhism, p. 316. २ थेरीगाथा, अट्ठकथा, ३ हिन्दू सभ्यता, पृष्ठ १८३ । १३६-४३ । ४ उत्तराध्ययनचूर्णि ५ आवश्यक चूणि- उत्तरार्द्ध, पत्र १६७ । ६ आवश्यकचूर्णि – उत्तरार्द्ध, पत्र १६७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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