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________________ २८६ जन कथा साहित्य की विकास यात्रा बन्धनों में बाँधा और मेरे निमित्त से ही पिता की मृत्यु हुई है।" वह पिता के शाक से संतप्त होकर राजगृह को छोड़कर चम्पा नगरी पहुँचा और उसे मगध की राजधानी बनाया। बौद्ध दृष्टि से जिस दिन बिम्बसार की मृत्यु हुई, उस दिन अजातशत्रु के पूत्र हआ । संवादप्रदाताओं ने लिखित रूप से संवाद प्रदान किया। पुत्र-प्रेम से राजा हर्ष से नाच उठा। उसका रोम-रोम प्रसन्न उठा । उसे ध्यान आया-जब मैं जन्मा था, तब मेरे पिता को भी इसी तरह आह्लाद हआ होगा। उसने कर्मकरों से कहा-पिता को मुक्त कर दो। संवाददाताओं ने राजा के हाथ में बिम्बसार की मृत्यु का पत्र थमा दिया। पिता की मृत्यु का संवाद पढ़ते ही वह आँसू बहाने लगा और दौड़कर माँ के पास पहुँचा तथा माँ से पूछा-माँ ! क्या मेरे पिता को भी मेरे प्रति प्रेम था ? माँ ने अंगुली चूसने की बात कही। पिता के प्रेम की बात को सुनकर वह अधिक शोकाकुल हो गया और मन ही मन दुःखी होने लगा। कूणिक का दोहद, अंगुली में व्रण, कारागृह आदि प्रसंगों का वर्णन जेन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में प्राप्त है। परम्परा में भेद होने के कारण कुछ निमित्त पृथक् हैं । जैन परम्परा को घटना 'निरयावालिका' की है, जिसका रचनाकाल पं० दलसुखभाई मालवणिया वि० सं० के पूर्व का मानते हैं ।1 बौद्ध परम्परा में यह घटना 'अट्ठकथाओं में आई है । इसका रचनाकाल विक्रम की पांचवीं शताब्दी है । जिस परम्परा को जो कथा का स्रोत मिला उसी के आधार पर वह ग्रन्थों में आई है। जैन परम्परा में कूणिक की क्रूरता का चित्रण हुआ है । पर वह बौद्ध परम्परा की तरह स्पष्ट नहीं है । बौद्ध परम्परा में 'अजातशत्रु' अपने पिता के पैरों को छिलवाता है और उसमें नमक भरवा कर अग्नि से सेक करवाता है। यह उसका अमानवीय रूप बहुत ही स्पष्टता से उजागर हआ है। जैन परम्परा में उसे (श्रेणिक को) कारागृह में डालने की बात तो कही है, पर पिता को बेरहमी से भूखे मारने की बात नहीं कहीं है। जैन दृष्टि से श्रेणिक की मृत्यु स्वयं ने की तो बौद्ध परम्परा की दृष्टि से अजातशत्र ने । १ आगम-युग का जैन दर्शन, सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, १६६६, पृष्ठ २६ -पं० दलसुख मालवणिया २ आचार्य बुद्धघोष-महाबोधिसभा, सारनाथ, वाराणसी, १९५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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