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________________ २८४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा बड़े-बड़े वीर कांपते थे इसलिए यह नाम गर्दा का प्रतीक न होकर उसकी वीरता का प्रतीक है। जिनदास गणी महत्तर ने कूणिक को 'अशोकचन्द्र' भी लिखा है। कहते हैं-जब कूणिक को 'असोगवणिया' नाम के उद्यान में फेंक दिया गया तो वह उद्यान चमक उठा। इसलिए कूणिक का नाम 'अशोकचन्द्र' रखा गया। कूणिक की अंगुली पक जाने से उसमें से मवाद निकलती और उससे वह चिल्लाता था। अपने पुत्र की वेदना को शान्त करने के लिए राजा श्रेणिक अंगुली को मुंह में रखकर चूसता जिससे बालक चुप हो जाता। बौद्ध परम्परा की दृष्टि से जन्मते ही बालक को राजा के कर्मचारी वहाँ से हटा देते हैं कि कहीं महारानी उसे मार न दें। कुछ समय के पश्चात् उस बालक को महारानी को सौंपते हैं। पुत्र-प्रेम से महारानी उसमें अनुरक्त हो जाती है । एक बार अजातशत्रु की अंगुली में फोड़ा हो जाता है, बालक रोने लगता है जिससे कर्मकर उसे राजसभा में ले जाते हैं। राजा उसकी अंगुली को मुंह में रख लेता है। फोड़ा फूट जाता है। पुत्र-प्रेम से पागल बना हुआ राजा उस रक्त और मवाद को थूकता नहीं, किन्तु निगल जाता है। कूणिक के अन्तर्मानस में यह विचार पैदा हआ कि राजा श्रेणिक के रहते हए मैं राजा नहीं बन सकता । इसलिए वह अपने अन्य भ्राताओं को अपने साथ मिलाकर स्वयं राज्य-सिंहासन पर आरूढ़ हो जाता है और राजा श्रेणिक को गिरफ्तार कर कारागृह में बन्द कर देता है। बौद्ध परम्परा की दृष्टि से अजातशत्रु जीवन के उषाकाल से ही महत्वाकांक्षी था। उसकी महत्वाकांक्षा को उभारने वाला देवदत्त था। जिसके कारण उसने पिता को धूमगृह (लौह-कर्म करने का घर) में डलवा दिया। जैन दृष्टि से एक दिन कूणिक अपनी माँ को नमस्कार करने पहुँचा। माँ को चिन्तासागर में डुबकी लगाते हुए देखकर कूणिक ने कहाँ-माँ ! क्यों चिन्तित हो रही हो ? मैं तुम्हारा पूत्र राजा बन गया हूँ, फिर भी तुम चिन्तित हो ? मुझे कारण बताना होगा। माँ ने श्रेणिक के प्रेम की घटना सुनाई और कहा-तुझे धिक्कार है। अपने महान उपकारी पिता को तेने कष्ट दिया है । कुणिक के मन में पिता के प्रति प्रेम जागृत हुआ। उसे अपनी भूल पर पश्चात्ताप हआ और हाथ में परशु लेकर पितृ-मोचन के लिए चल पड़ा। श्रेणिक ने दूर से देखा--कूणिक परशु हाथ में लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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