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________________ विविध कथाएँ २८३ में संतोष न था । वह भन ही मन में दुःखी हो रही थी कि इस बालक के गर्भ में आते ही पति का मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ, अतः इस दुष्ट गर्भ को गिरा देना ही श्रेयस्कर है। रानी ने गर्भपात के लिए अनेक प्रयोग किये किन्तु कोई भी उपाय कारगर गहीं हुआ। जन्म लेने पर नवजात शिशु को महारानी चेलना ने कूड़ी (रोड़ी) पर फिकवा दिया। जब राजा श्रेणिक को पता चला तो उन्होंने शिशु को मंगवाया। कूड़ी पर पड़े हुए शिशु की अंगुली में कुक्कुट की चोंच से चोट आ गई थी, जिससे उसकी अंगुली छोटी रह गई, अतः उसका नाम 'कूणिक' रखा गया। कूणिक का नाम जैन और बौद्ध दोनों परम्परा में मिलता है। जैन परम्परा में उसे 'कोणिक' या 'कूणिक' कहा गया है तो बौद्ध परम्परा में उसे 'अजातशत्रु' लिखा है। कूणिक नाम 'कूणि' शब्द से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है-अंगुली का घाव ।1 'कूणिक' का अर्थ हुआ अंगुली के घाव वाला व्यक्ति । आचार्य हेमचन्द्र ने भी इस बात को स्वीकार किया है। उपनिषद् और पुराणों में अजातशत्रु' नाम व्यवहृत हुआ है । यह अधिक सम्भव है 'कूणिक' उनका मूल नाम रहा होगा और 'अजातशत्रु' उपाधि विशेषण रहा होगा। मूल नाम से कभी-कभी उपाधि विशेष प्रचलित हो जाती है। यही कारण है कि भारतीय साहित्य में उसका 'अजातशत्रु' नाम विशेष रूप से व्यवहृत हुआ है। मथुरा के संग्रहालय में एक शिलालेख में उसका नाम 'अजातशत्रु कूणिक' उटैंकित है। 'अजातशत्रु' शब्द के दो अर्थ किये जा सकते हैं-(१) 'न जातः शत्रुर्यस्य' जिसका कोई शत्रु जन्मा ही नहीं हो। (२) 'अजातोऽपि शत्रुः' अर्थात् जन्म से पूर्व ही (पिता का शत्र) शत्रु ।। द्वितीय अर्थ आचार्य बुद्धघोष ने किया है। यह अर्थ पूर्ण रूप से संगत भी है । अजातशत्रु प्रतापी नरेश था। उसके नाम से १ Apte's Sanskrit-English Dictionary, Vol. 1, p. 580. २ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ३०६. ३ Dialogues of Buddha, Vol. II, P. 78. ४ वायुपुराण, अ० ६६, श्लोक ३१६; मत्स्यपुराण, अ० २७१, श्लोक ६. ५ Journal of Bihar and Orissa Research Society, Vol. V, Part IV.. pp. 550-51. ६ Dialogues of Buddha, Vol. II, p. 78. ७ दीघनिकाय, अट्ठकथा-१, १३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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