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निह्नव कथाएँ
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कार्य नहीं किया जिसमें प्रमाद और पाप-कर्म हों। भगवान् महावीर के द्वारा शीतललेश्या का प्रयोग एक परम कारुणिक भावना का निदर्शन है। जब सामने पंचेन्द्रिय प्राणी जल रहा हो और दूसरा व्यक्ति निरपेक्ष भाव से उसे निहारता रहे, उसके अन्तर्मानस में अनुकम्पा की लहर न उठे, यह कैसे सम्भव है ? आचार्य भीखणजी ने इस अनुकम्पा-प्रसंग को भगवान् महावीर की भूल बताई है । उन्होंने कहा-"छद्मस्थ चूक्या तिण समै"अर्थात् महावीर ने गौशालक को बचाकर भूल की ! हमारी दृष्टि से यह अहिंसा का एकान्तिक आग्रह या एकांगी चिन्तन है। भगवान महावीर की अहिंसा नकारात्मक ही नहीं, क्रियात्मक भी थी। गौशालक की प्राण रक्षा कर भगवान ने एक आदर्श उदाहरण उपस्थित किया।
(भगवती सूत्र शतक १५)
१ 'छउमत्थोवि परक्कममाणो ण पमायं सईपि कुव्विस्था।
-आचा., श्रुत. १, अध्य. ६, उद्देशा ४, गा. १५
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