SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा कहा- तू आज ही नष्ट हो जायेगा, तेरा जीवन नहीं रहेगा । भगवान् के सारे शिष्य चुप रहे । सर्वानुभूति अणगार, जिनका भगवान् पर अत्यधिक अनुराग था, उन्होंने कहा - भगवान् महावीर ने आपको शिक्षा और दीक्षा दी । उन धर्माचार्य के प्रति इस प्रकार के वचन कह रहे हो ? यह सुनते ही गौशालक का चेहरा तमतमा उठा - उसने सर्वानुभूति अणगार को तेजोलेश्या के एक ही प्रहार से जलाकर भस्म कर दिया । वह पुनः प्रलाप करने लगा । सुनक्षत्र अणगार से भी न रहा गया, उन्होंने भी गोशालक को समझाने का प्रत्यन किया । गोशालक ने सुनक्षत्र अणगार को भी जलाकर भस्म कर दिया । भगवान् महावीर ने गौशालक को समझाना चाहा । गोशालक का क्रोधित होना स्वाभाविक था । वह सात-आठ कदम पीछे हटा । भगवान् महावीर को भस्म करने के लिए उसने तेजोलेश्या का प्रहार किया । पर प्रभु के अमित तेज से तेजालेश्या उनको जला न सकी, वह प्रदक्षिणा कर पुनः गौशालक के शरीर को जलाती हुई उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई । गौशालक ने भगवान् से कहा- काश्यप ! मेरी तेजोलेश्या से पराभूत व पीड़ित होकर तू छह मास की अवधि में मृत्यु को प्राप्त होगा । महावीर ने कहा- मैं तो सोलह वर्ष तक तीर्थंकर- पर्याय में विचरण करूँगा और तू अपनी तेजोलेश्या से पीड़ित होकर सात रात्रि के अन्दर ही छद्मस्थ अवस्था में काल-धर्म को प्राप्त होगा । । भगवान् महावीर के गोशालक उत्तर नहीं अब गौशालक का तेज नष्ट हो चुका था आदेश से स्थविरों से विविध प्रकार के प्रश्न किये। दे सका। अन्य अनेक आजीवक स्थविर भगवान् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गये । सारे नगर में चर्चा फैल गई कि किसका कथन सत्य है और किसका असत्य ? लब्ध प्रतिष्ठित लोगों ने कहा - भगवान् महावीर का कथन सत्य है । गौशालक के शरीर में भयंकर वेदना हुई । विक्षिप्त सा इधर-उधर निश्वास छोड़ता हुआ वह कुम्भकारापण में पहुँचा । वह अपने दोष को छिपाने के लिए चार पानक पेय और चार अपानक अपेय प्ररूपित कर रहा था । वे चार पानक ये हैं - १. गाय के पृष्ठ भाग से गिरा हुआ २. हाथ से उलीचा हुआ ३. सूर्य ताप से तपा हुआ ४. शिलाओं से गिरा हुआ । चार अपानक ये हैं, जो पीने के लिए ग्राह्य नहीं है किन्तु दाह आदि के उपशमन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy