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________________ निह्नव कथाएँ २७५ को तोड़कर सात तिल बाहर निकाले और उसे यह विश्वास हुआ कि सभी जीव मर कर पुनः उसी योनि में पैदा होते हैं।' गौशालक मेरे से अलग हुआ और उसने तेजोलेश्या की साधना की। इसीलिए गौशालक जिन नहीं किन्तु जिन-प्रलापी है । यह बात श्रावस्ती में प्रसारित हो गई। मंखलिपुत्र गौशालक ने भी यह बात सुनी । उसे बहुत क्रोध आया। वह आतापना भूमि से कुम्भकारापण में आया और आजीवक संघ के साथ अत्यन्त अमर्श से बैठा। भगवान् महावीर के शिष्य आनन्द भिक्षा के लिए श्रावस्ती में गये हुए थे। वे भिक्षा लेकर लौट रहे थे। गौशालक ने आनन्द को अपने पास बुलाकर कहा-तूम जरा मेरी बात सुनकर जाओ। कुछ व्यापारी भयंकर अटवी में पहुँचे । वे अपने साथ जो पानी लाये थे, वह समाप्त हो गया जंगल में आगे पहुंचने पर एक विशाल बल्मिक दिखाई दिया। उसमें चार। शिखर थे। उन्होंने एक शिखर को तोड़ा। उसमें से बढ़िया मधुर जल प्राप्त हुआ। सभी तृप्त हो गये । दूसरा शिखर तोड़ा, उसमें से स्वर्ण-राशि प्राप्त हई। उनकी लोभवृत्ति प्रबल हई। उन्होंने तीसरा शिखर तोड़ा, उसमें से मणि-रत्न निकले । उन व्यापारियों ने सोचा-चौथा शिखर तोड़ने पर वज्र रत्न निकलेंगे। चतुर व्यापारी ने शिखर को तोड़ने का निषेध किया, किन्तु दूसरे व्यापारियों उसके कथन की उपेक्षा को । ज्यों ही शिखर तोड़ा, उसमें से भयंकर दृष्टिविष सर्प निकला। सारे व्यापारी जलकर भस्म हो गये। सर्प ने केवल एक व्यापारी को बचाया और उसे सम्मान सहित घर पहुँचा दिया। इसी तरह हे आनन्द ! मेरे सम्बन्ध में महावीर कुछ भी कहेंगे तो मैं उन्हें अपने तपस्तेज से भस्म कर दूंगा । उस हितैषी व्यक्ति की तरह तुझे बचा लूगा । आनन्द अत्यधिक भयभीत हुआ। वह भगवान् महावीर के पास आया और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। क्या भगवान् ! वह भस्म कर सकता है ? भगवान् ने कहा-वह भस्म कर सकता है किन्तु अरिहन्त प्रभु को नहीं । वह जला तो नहीं सकता किन्तु परिताप अवश्य दे सकता है । अतः तुम जाओ और गौतम आदि निम्रन्थों को कह दो कि गौशालक इधर आ रहा है, उसमें बहुत ही दुर्भावना है, इसीलिए उसकी बातों का कोई भी जवाब नहीं दें । आनन्द ने सभी मुनिवरों को सूचना दे दी। गौशालक वहाँ आ पहुँचा। उसने कहा-आपका शिष्य गौशालक मर चुका है, मैं दूसरा हूँ। भगवान् ने कहा-अन्य न होते हुए भो तुम अपने को अन्य बता रहे हो, यह योग्य नहीं है । गौशालक ने क्रुद्ध होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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