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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
गौशालक को शिष्यत्व रूप में स्वीकार किया' - ऐसा किया है। अब वह मेरे साथ ही रहने लगा । एक बार मैं सिद्धार्थ ग्राम से कुर्मग्राम जा रहा था । रास्ते में एक तिल का पौधा था । उसने मेरे से पूछा - तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं ? मैंने कहा - ' होगा । ये सात तिल पुष्प के जीव इसी पौधे की एक फली में सात तिल रूप में उत्पन्न होंगे ।' मेरी बात पर विश्वास न होने से पीछे रुककर उस पौधे को मिट्टी सहित उखाड़कर एक ओर फेंक दिया । उसी समय वर्षा हुई और वह पौधा जमीन में स्थिर हो गया । मेरे कथनानुसार वह पौधा पुनः सात तिलों के रूप में उत्पन्न हुआ ।
एक बार गौशालक मेरे साथ कूर्मग्राम नगर आया । कूर्मग्राम के बाहर ' वैश्यायन' नामक बालतपस्वी छट्ठ छट्ठ तप कर रहा था। दोनों हाथ ऊँचे रखकर सूर्य के सन्मुख खड़े होकर आतापना ले रहा था । उसके सिर से गर्मी के कारण जूए नीचे गिर रही थीं और वह पुनः उठा-उठाकर उन्हें सिर में रख रहा था । गौशालक ने पीछे रहकर उससे कहा- तुम तत्त्वज्ञ मुनि हो या जुओं के शय्यातर हो ? तीन बार कहने पर वैश्यायन कुपित हुआ और तेजो समुद्घात कर तेजोलेश्या बाहर निकाली तथा गोशालक पर प्रक्षिप्त की । गोशालक पर अनुकम्पा कर मैंने तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए शीतललेश्या निकाली । वैश्यायन ने कहाहे भगवन् ! मैंने जाना यह आपका शिष्य है । यदि मुझे यह ज्ञात होता कि यह आपका शिष्य है तो मैं यह नहीं करता । गौशालक तेजोलेश्या को देखकर प्रभावित हुआ ।
गोशालक ने मेरे से पूछा- संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त होती है ? मैंने कहा - 'नख सहित बन्द की गई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें उतने मात्र से तथा चुल्लू भर पानी से छट्ठ छट्ठ की तपस्या के साथ दोनों हाथ ऊँचे रखकर आतापना लेने वाले पुरुष को छह माह के पश्चात् तेजोलेश्या प्राप्त होती है ।
एक बार वह मेरे साथ पुनः कूर्मग्राम से सिद्धार्थं ग्राम की ओर जा रहा था, तब उसने कहा- आपने 'तिल पुष्प के जीव सात तिल के रूप में उत्पन्न होंगे' - यह कहा था सो वह बात मिथ्या हो गई । मैंने पौधे की ओर संकेत किया । उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं था । अतः तिल-फली
१ भगवती सूत्र - पं० श्री घेवरचन्दजी बांठिया "वीरपुत्र "
--- अ. भा. सा. जैन संस्कृति रक्षक संघ — सैलाना, शतक १५वाँ, पृ० २३८७.
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