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निह्रव कथाएँ
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परम्परा के ग्रन्थों ने भी मान्य किया है। जहां पर उन्होंने आजीवक मत की आलोचना की वहाँ उसकी प्रशंसा के अन्दर उसे बारहवें देवलोक और मोक्षगामी कहा है। जो यह मानते हैं कि गौशालक महावीर का गुरु था, यह बिल्कुल ही निराधार और कपोल कल्पित बात है । गौशालक ने स्वयं यह स्वीकार किया-"गौशालक तुम्हारा शिष्य था, पर मैं यह नहीं हूँ। मैंने गौशालक के शरीर में प्रवेश किया है यह शरीर उस गौशालक का है, पर आत्मा भिन्न है।" इस प्रकार विरोधी प्रमाणों के अभाव में विद्वानों ने जो अर्थशून्य कल्पनाएँ की हैं, वे भ्रम में डालने वाली हैं । आधुनिक विद्वान इस सम्बन्ध में जागरूक हो रहे हैं, यह प्रसन्नता की बात है।
एक बार गणधर गौतम भिक्षा के लिए श्रावस्ती में गये। उन्होंने नगरी में जन-प्रवाद सुना-श्रावस्ती में दो तीर्थंकर विचर रहे हैं-एक श्रमण भगवान् महावीर और दूसरे गौशालक । वे भगवान् के चरणों में पहँचे और इस विषय में सत्य तथ्य जानना चाहा। भगवान् ने गौशालक का पूर्व परिचय दिया-इसके पिता का नाम 'मंखलि' था। माता का नाम 'भद्रा' था। चित्रपट्ट बनाकर आजीविका चलाता था। वह 'गौबहुल' ब्राह्मण की गौशाला ठहरा हुआ था, वहाँ इसका जन्म हुआ। गौशाला में जन्म होने से इसका नाम 'गौशालक' रखा गया। मेरा द्वितीय वर्षावास राजगृह के तन्तुवायशाला में था। वहीं पर गौशालक भी दूसरा स्थान न मिलने से आकर ठहरा। मैं मासखमण के पारणे के लिए राजगृह के 'विजय गाथापति' के यहाँ पहुँचा। उसने उत्कृष्ट भावना से दान दिया। जिससे पाँच दिव्य प्रकट हुए-वसुधारा की वृष्टि, पाँच वर्ण के पुष्पों की वृष्टि, ध्वजा और वस्त्र की वृष्टि, देव दुन्दुभि और आकाश में 'अहोदानंअहोदान' की दिव्य ध्वनि । जन-मानस से यह बात सुनकर गौशालक वहाँ पहुँचा और वसुधारा आदि देखकर प्रभावित हुआ। मेरे को नमस्कार कर 'मैं धर्म शिष्य हूँ और आप मेरे धर्माचार्य हैं। इस प्रकार बोला । मैंने दूसरे मासखमण का पारणा 'आनन्द' गाथापति के वहाँ किया और तीसरे मासखमण का पारणा 'सुनन्द' गाथापति के वहाँ किया। चतुर्थ मासखमण का पारणा कोल्लाक सन्निवेश में 'बहुल' ब्राह्मण के यहाँ हुआ । गौशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में न देखा तो मेरी अन्वेषणा करता हुआ कोल्लाक सन्निवेश में आया । मैं उस समय मनोज्ञ भूमि में ध्यानस्थ था। गौशालक ने मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और 'मैं आपका शिष्य हूँ' इस प्रकार बोला। टीकाकार आचार्य अभयदेव ने 'अभ्युपगच्छामि' का अर्थ 'मैंने
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