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निह्नव कथाएँ
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प्रस्तुत कथा बौद्ध परम्परा में उत्तरकालीन साहित्य में आई है, इसलिए विज्ञों ने उसका अधिक महत्व नहीं माना है ।।
पाणिनी ने इसे 'मस्करी' शब्द माना है। 'मस्करी' शब्द का सामान्य अर्थ-परिव्राजक किया है। भाष्यकार पतंजलि ने लिखा है'मस्करी' वह साधु नहीं है जो हाथ में मस्कर या बांस की लाठो लेकर चलता है तथापि वह क्या है ? मस्करी वह है-जो उपदेश देता है, कर्म मत करो ! शान्ति का मार्ग ही श्रेयस्कर है। पाणिनी और पतंजलि ने गौशाल के नाम का निर्देश नहीं किया है, किन्तु उनका लक्ष्य वही है। 'कर्म मत करो'- यह व्याख्या उस समय प्रचलित हुई जब गौशालक एक धर्माचार्य के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका था। जैन आगम व आगमेतर साहित्य में गौशालक को मंखलि का पुत्र तो माना ही है साथ ही उसे गौशाला में उत्पन्न भी माना है। जिसकी पुष्टि पाणिनी 'गौशालाया जात गोशालः । (४/३/१५) की व्युत्पत्ति इस व्युत्पत्ति-नियम से करते हैं। आचार्य बद्धघोष ने सामञफलसुत्त की टीका में गौशालक का जन्म 'गौशाला' में हुआ, ऐसा माना है ।।
आधुनिक शोधकर्ताओं ने गौशालक और आजीवक मत के सम्बन्ध में नवीन स्थापना करने का प्रयास किया है। पर परिताप है नवीन स्थापना करते समय इतिहास और परम्परा की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। जिससे उनकी स्थापना सही स्थापना न होकर मिथ्या स्थापना हो गई। श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार गौशालक के गुरु श्रमण भगवान महावीर थे। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से गौशालक भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का एक श्रमण था। वह भगवान महावीर की परम्परा में आकर गणधर
१ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन पृ० ४१ २ मस्करमस्करिणो वेणुपरिव्राजकयोः ।
-पाणिनी व्याकरण ६/१/१५४ ३ न वै मस्करोऽस्यासाति मस्करी परिव्राजकः किं तर्हि । माकृत कर्माणि माकृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजकः ।
-पातञ्जल महाभाष्य ६/१/१५४ ४ सुमंगल विलासिनी (दीघनिकाय अट्ठकथा) पृ० १४३-४४ ५ भगवती १५वां शतक
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