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________________ २७० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा आवश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति में अन्य निह्नवों का निरूपण है। हमने प्रबुद्ध पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ पर उनकी चर्चा की है। आजीवक तीर्थंकर : गौशालक श्रमण भगवान् महावीर के जीवन में गौशालक एक प्रमुख चर्चास्पद व्यक्ति रहा है। भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में उसके जीवन की गाथायें दी गई हैं। आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति और मलयगिरिवृत्ति, महावीर चरियं में उसके जीवन के अनेक प्रसंग हैं । वह प्रारम्भ में भगवान महावीर का शिष्य बना और बाद में प्रतिस्पर्धी और विद्रोही बना। आजीवक मत का आचार्य बनकर स्वयं को तीर्थंकर भी उसने घोषित किया। गौशालक के नाम और व्यवसाय के सम्बन्ध में विभिन्न व्याख्याएँ हैं। भगवती, उपासकदशांग आदि आगम-साहित्य में 'गोसाले मंखलिपुत्ते' इस शब्द का प्रयोग हुआ है । गौशालक मंख कर्म करने वाला 'मंखलि' नामक व्यक्ति का पुत्र था । 'मंख' शब्द का अर्थ कहीं पर 'चित्रकार' और कहीं पर 'चित्रविक्रेता' किया है। नवांगी टीकाकर आचार्य अभयदेव ने लिखा है-'चित्रफलकं हस्तेगतं यस्य स तथा'-जो चित्रपट्टक हाथ में रखकर अपनी आजीविका चलाता है। हमारी अपनी दृष्टि से प्रस्तत अर्थ विशेष संगत है। 'मंख' एक जाति विशेष थी। उस जाति के लोग शिव, ब्रह्मा या अन्य किसी देव का चित्रपट्ट हाथ में रखकर अपनी आजीविका चलाते थे । जिस प्रकार आज भी दाकोत जाति के लोग शनि देव की मूर्ति या चित्र रखकर अपनी आजीविका चलाते हैं। बौद्ध साहित्य में भी 'मक्खली गौशाल' को आजीवक नेता कहा है। इस सम्बन्ध में एक कथा है-गौशालक एक दास था । वह स्वामी के आगे तेल का घड़ा लेकर चल रहा था। कुछ दूर जाने पर ढलाऊ चिकनी भूमि आई। मक्खली के स्वामी ने कहा-'तात ! मा खलि, तात! मा खलि" -अरे स्खलित मत होना, अरे स्खलित मत होना ! किन्तु गौशालक का पैर फिसल गया और तेल भूमि पर गिर पड़ा। मक्खली स्वामी के भय से भागने लगा, पर स्वामी ने भागते हुए का वस्त्र पकड़ लिया। वह वस्त्र छोड़कर नंगा ही भाग गया। इस प्रकार वह नग्न हो गया और लोग उसे 'मंखलि' कहने लगे। १ (क) धम्मपद, अट्ठकथा, आचार्य बुद्धघोष १/१४३ (ख) मज्झिम निकाय -अट्ठकथा १/४२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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