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________________ निह्रव कथाएँ २६६ माहिल ने सोचा-अपरिमाण प्रत्याख्यान अच्छा है। परिमाण प्रत्याख्यान में वाञ्छा दोष उत्पन्न होता है। एक व्यक्ति परिमाण प्रत्याख्यान की दृष्टि से पौरुषी, उपवास, आदि विविध प्रकार के तप करता है किन्तु ज्योंही कालमान पूर्ण होता है, उसमें आहार की इच्छा तीव्र हो जाती है । इसलिए वह दोषयुक्त है । गोष्ठामाहिल ने अपने विचार विंध्य को कहे । विध्य ने उधर ध्यान नहीं दिया तब दुर्बलिका पुष्यमित्र से उसने कहा । दुर्बलिका पुष्य मित्र ने समाधान करते हुए कहा-अपरिमित प्रत्याख्यान का सिद्धान्त अनुचित है। अपरिमाण का अर्थ यावत् शक्ति है या भविष्यतकाल है ? यदि तुम यावत् शक्ति अर्थ ग्रहण करते हो तो हमारे मत को स्वीकार करना है। यदि द्वितीय अर्थ स्वीकार करते हो तो व्यक्ति मरकर देवरूप में उत्पन्न होता है। उसमें सभी व्रतों के भंग का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। इसीलिए अपरिमित प्रत्याख्यान का सिद्धान्त ठीक नहीं है। आचार्य ने गोष्ठामाहिल को विविध प्रकार से समझाया, पर वह अपने आग्रह पर दृढ़ रहा। उसने विभिन्न स्थविरों से यह पूछा, स्थविरों ने भी गोष्ठामाहिल को जिनेश्वर देव की आशातना न करने का संकेत किया। पर गोष्ठामाहिल अपने मत से किंचित मात्र भी विचलित नहीं हुआ। स्थविरों ने संघ को एकत्रित किया और शासनदेन से कहा-सीमन्धर स्वामी से जाकर पूछो-गोष्ठामाहिल का कथन सत्य है अथवा दुर्बलिका पुष्यमित्र का ? देव ने तीर्थंकर से पूछा-किसका कथन सत्य है ? भगवान् ने कहादुर्बलिका पुष्यमित्र का। गोष्ठामाहिल ने देव के कथन की उपेक्षा की। आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने पुनः विचार करने के लिए कहा, पर वह तैयार नहीं हुआ। तब उसे संघ से पृथक् कर दिया ।1 अबद्धिक मतवादियों का मन्तव्य था--कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं पर वे आत्मा के साथ एकीभूत नहीं होते। सप्त निह्नवों में जमालि, रोहगुप्त, गोष्ठामाहिल ये तीन अन्त समय तक अलग रहे और शेष चार निह्नव पुनः जैनशासन में सम्मिलित हो गये । स्थानांग सूत्र में सप्त निह्नवों के नाम आदि का निर्देश है, पर वहाँ अन्य इतिवृत्त के सम्बन्ध में सूचन नहीं है। जमालि निव का निरूपण भगवती सूत्र, शतक और उद्देशक-३३ में विस्तार से आया है। पर अन्य निह्नवों के सम्बन्ध में मूल आगम साहित्य में वर्णन नहीं है । १ आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४१५-४१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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