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________________ २६८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा अबद्धिकवाद के प्रवर्तक : "आचार्य गोष्ठामाहिल" श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पाँच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् दशपुर नगर में गोष्ठामाहिल ने "अबद्धिक मत" की संस्थापना को।। दशपुर नगर में आर्यरक्षित ब्राह्मण पुत्र था । वह अनेक विद्याओं में पारंगत होकर घर लौटा । माता के द्वारा प्रेरित होकर वे आचार्य तोसली. पुत्र के पास दीक्षा ग्रहण कर दृष्टिवाद का अध्ययन करते हैं। उसके पश्चात् आर्य वज्र से नौ पूर्वो का अध्ययन कर दशवें पूर्व के चौबीस यविक ग्रहण किये । दुर्बलिका पुष्यमित्र, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल-ये आर्यरक्षित के तीन प्रमुख शिष्य थे। दुर्बलिका पुष्यमित्र एक बार अर्थ की दाचना प्रदान कर रहे थे। विंध्य उनकी वाचना के पश्चात् उस पर चिंतन एवं पुनरावृत्ति कर रहा था। विषय था- जीव के साथ कर्मों का बंध तीन प्रकार से होता है-१. स्पष्ट-कितने ही कर्म जीव प्रदेशों के साथ स्पर्श करते हैं और स्थिति का परिपाक होने पर वे उनसे अलग हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में-दीवाल पर फेंकी गई धूल दीवाल का स्पर्श कर नीचे गिर जाती है । २. स्पृष्टबद्ध-कितने ही कर्म जीव प्रदेशों का स्पर्श कर बद्ध होते हैं और वे कुछ समय के पश्चात् पृथक हो जाते हैं । दीवाल पर गीली मिट्टो फेंकने पर कितनी ही मिट्टी चिपक जाती है और कितनी ही नीचे गिर पड़ती है। ३. स्पृष्टबद्ध निकाचित-कितने ही कर्म जीव प्रदेशों के साथ गाढ़ रूप से बँध जाते हैं । वे कालान्तर में पृथक हो जाते हैं । ___इस विवेचन को सुनकर गोष्ठामाहिल के मन में यह विचार पैदा हुआ-यदि कर्म को जीव के साथ बद्ध माना जायेगा तो मोक्ष का अभाव हो जायेगा । कर्म जीव के साथ स्पृष्ट होते हैं, बद्ध नहीं, वे कालान्तर में वियुक्त हो जाते हैं। जो वियुक्त होता है, वह एकात्मक रूप से बद्ध नहीं हो सकता। विध्य ने गोष्ठामाहिल से कहा-जैसा आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र ने मुझे बताया है वैसा ही मैं कह रहा है, पर उसे समझ में नहीं आया। नौवें पूर्व में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में वाचना चल रही थी। गोष्ठा १ आवश्यकभाष्य, गाथा १४१. २ आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति पत्र ४१६ में इनके स्थान पर बद्ध, बद्धस्पृष्ट, और __ बद्धस्पृष्ट निकाचित-ये शब्द दिये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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