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निह्नव कथाएँ २६५ सन्निकट आकर प्रायश्चित्त लिया तथा वे भगवान् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गये। द्विक्रियावादी एक ही समय में दो क्रियाओं का अनुवेदन मानते थे।
त्रैराशिकवाद के प्रवर्तक : "आचार्य रोहगुप्त" श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण के पाँच सौ चोमालिस वर्ष बाद अन्तरंजिका नगरी में 'त्रैराशिक' मत का प्रवर्तन हुआ। इसके प्रवतक आचार्य रोहगुप्त थे जिनका अपर नाम 'षडूलुक' भी था । अन्तरजिका नगरी का राजा 'बलश्री' था। भूतगृह नामक चैत्य था। आचार्य श्रीगुप्त वहाँ पर ठहरे हुए थे। रोहगुप्त उनका संसारपक्षीय भाणेज था। वह एक बार आचार्य को वन्दन करने के लिए जा रहा था। उसे एक परिव्राजक मिला, जिसका नाम 'पोट्ट शाल' था। उसने अपना पेट बाँध रखा था और उसके हाथ में जम्बूवृक्ष की टहनी थी। उसने कहा-कहीं ज्ञान से पेट न फट जाय, इसीलिए मैंने इसे बांध रखा है। जम्बुद्वीप में मेरा कोई भी प्रतिवाद करने वाला नहीं है । अतः जम्बूवृक्ष की शाखा हाथ में घुमा रहा है। सभी धार्मिकों को में चुनौती देता है कि वे मुझे पराजित करें पर आज दिन तक किसी ने भी मेरी चुनौती को स्वीकार नहीं किया है। रोहगुप्त ने उसकी चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया और आचार्य के पास पहुँवा । आचार्य से निवेदन किया-मैंने पोट्टशाल की चुनौती को स्वीकार किया है। आचार्य ने कहा-वत्स ! तेने बिना सोचे-समझे ही यह स्वीकृति दी है क्योंकि पोटटशाल परिव्राजक वश्चिक विद्या, सर्पविद्या, मुषकविद्या, मृगीविद्या, वराहीविद्या, कागविद्या, पोताकीविद्या इन सात विद्याओं में पारंगत है । इसीलिए वह तेरे से अधिक बलवान है ।
रोहगुप्त भय से कांप उठा-भगवन् ! अब मैं क्या करूं ? क्या यहाँ से अन्यत्र भागकर चला जाऊँ?
१ (क) आवश्यक, मलयगिरि वृत्ति पत्र ४०६, ४१० । (ख) मणिनागेणारद्धो भयोववत्ति पडिबोहितोवोत्त । इच्छामो गुरुमूलं गंतूण ततो पडिक्कतो॥
-विशेष आवश्यकभाष्य, गाथा २४५० । २ पंच सया चोयाला तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिठि उप्पन्ना।
-आवश्यकभाष्य, गाथा १३५.
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