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________________ २६४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा समुच्छेदवादी प्रत्येक पदार्थ का सम्पूर्ण विनाश मानते थे। वे एकान्त समुच्छेद का निरूपण करने के कारण निन्हव कहलाये। द्विक्रियावाद के प्रवर्तक : "आचार्य गंग" भगवान महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ अट्ठाईस वर्ष पश्चात् उल्लुकातीर नगर में 'द्विक्रियावाद' की उत्पत्ति हुई। इसके प्रवर्तक आचार्य गंग थे। उल्लूका नदी के एक तट पर खेड़ा बसा हुआ था तो दूसरे तट पर उल्लूकातीर नामक नगर था। वहाँ पर आर्य महागिरि के शिष्य आर्य धनगुप्त थे। उनके शिष्य का नाम गंग था, जो खेड़े में ठहरा हुआ था, वह आचार्य को वन्दन करने के लिए चला। मार्ग में उल्लूका नदी थी, पैरों में पानी की ठण्डक का अनुभव हो रहा था तो सिर चिलचिलाती धूप से गरम हो रहा था। वह सोचने लगा-आगमों में वर्णन है-एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, दो क्रियाओं का नहीं । किन्तु मुझे दोनों क्रियाओं का साथ में वेदन हो रहा है। वह आचार्य देव के पास पहुंचा और अपनी बात कही । आचार्य ने कहा-वत्स ! एक समय में एक क्रिया का वेदन होता है । मन का क्रम बहुत ही सूक्ष्म है । इसीलिए हमें उसकी पृथकता का अनुभव नहीं होता। विविध प्रकार से समझाने पर भी गंग नहीं माना तो आचार्य ने उसे संघ से पृथक् कर दिया । आचार्य गंग विचरण करता हुआ राजगृह पहुँचा। राजगृह में 'महातपतीरप्रभ' नामक एक झरना था। वहाँ 'मणिनाग' नामक नाग का चैत्य था। आचार्य गंग वहीं पर ठहरे । धर्मश्रवणार्थ परिषद् उपस्थित हुई । आचार्य ने द्विक्रियावाद का अपने प्रवचन में समर्थन किया। मणिनाग ने गंग को समझाने के लिए कोई तर्क नहीं दिया। इसलिए वह पूर्वकथित अव्यक्तवाद समुच्छेदवाद आदि के समान द्विक्रियावाद को किसी प्रबल तर्क द्वारा परास्त नहीं कर पाया। तब मणिनाग ने परिषद् को सम्बोधित करके कहा-यह कुशिष्य है क्योंकि यहाँ पर एक बार भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था--एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है । तो क्या वह प्रभु महावीर से अधिक ज्ञानी है ? तू अपनी विपरीत प्ररूपणा परित्याग कर ! तभी तेरा कल्याण होगा। मणिनाग की बात को सुनकर गंग घबराया । अपने गुरु के १ आवश्यक, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०८, ४०६ । २ आवश्यकभाष्य, गाथा १३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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