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निव कथाएँ
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समुच्छेदवाद के प्ररूपक : " आचार्य अश्वमित्र"
भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ बीस वर्ष पश्चात् मिथिलापुरी में 'समुच्छेदवाद' की उत्पत्ति हुई । इसके प्रवर्तक आचार्य अश्वमित्र थे । एक बार मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह चैत्य में आचार्य महागिरि अवस्थित थे । उनके शिष्य का नाम कौंडिन्य और प्रशिष्य का नाम अश्वमित्र था । दशवें अनुप्रवाद ( विद्यानुप्रवाद) पूर्व के नैपुणिक वस्तु का अध्ययन चल रहा था । उसमें छिन्नछेद नय की दृष्टि से यह आलापक था कि प्रथम समय में समुत्पन्न सभी नारक विच्छिन्न हो जायेंगे । द्वितीयतृतीय आदि समय में उत्पन्न नैरयिक भी विच्छिन्न हो जायेंगे । इसी तरह सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे । इस प्रकार पर्यायवाद के प्रकरण को श्रवण कर अश्वमित्र का मन शंकित हुआ । वह चिन्तन करने लगा - वर्तमान समय में समुत्पन्न सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे तो सुकृत और दुष्कृत कर्मों का वेदन कौन करेगा ? उत्पन्न होने के पश्चात् सबकी मृत्यु हो जायेगी ।
महागिरि ने कहा - वत्स ! ऐसा नहीं है । यह जो कथन किया गया है, एक नय की अपेक्षा से है, सर्व नयों की अपेक्षा से नहीं । निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वनय सापेक्ष है, इसीलिए शंका करना उचित नहीं । वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, पर एक पर्याय के नष्ट होने पर वस्तु नष्ट नहीं होती । आचार्य के समझाने पर भी जब वह नहीं समझा तो उन्होंने उसे संघ से पृथक् कर दिया ।
एक बार अश्वमित्र कम्पिलपुर पहुँचा । वहाँ पर ' खण्डरक्षा' नाम श्रावक चुंगी अधिकारी था । उसे अश्वमित्र की विचारधारा का परिज्ञान था, अतः उसने उसे पकड़ा और पिटाई की। अश्वमित्र ने कहा- मैंने सुना था कि तुम श्रावक हो । श्रावक होकर तुम साधुओं को पीटते हो, क्या यह उचित है ?
श्रावक - आपके अभिमतानुसार वे श्रावक भी विच्छिन्न हो गए और जो प्रति श्रमण हैं वे भी विच्छिन्न हो गये । न हम श्रावक रहे और न आप साधु ! लगता है आप चोर हैं ।
अश्वमित्र समझ गया, उसे अपनी भूल का परिज्ञान हो गया । वह प्रतिबुद्ध होकर पुनः भगवान् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गया ।
१ आवश्यकभाष्य, गाथा १३१
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