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________________ २६२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा आषाढ़ ने देव रूप में प्रकट होकर कहा - श्रमणो ! मुझे क्षमा करना । मैं असंयती था तथापि संयतियों से नमस्कार करवाया । मृत्यु की सारी घटना उन्होंने शिष्यों के सामने रख दी । श्रमणों को यह सन्देह हो गया कि कौन श्रमण है और देव है ? यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते, इसलिए सभी अव्यक्त है । स्थविरों समझाने का प्रयास किया, पर वे नहीं समझे । एक बार वे विहार करते हुए राजगृह आये । वहाँ पर मौर्यवंशीय राजा बलभद्र श्रमणोपासक था । उसने उन शिष्यों के सम्बन्ध में सुन रखा था । उन्हें प्रतिबोध देने के लिए अपने चार व्यक्तियों को कहाउन श्रमणों को यहाँ पर बुलाकर लाओ। जब श्रमण वहाँ पहुँचे तो राजा ने कहा - इन्हें कोड़े लगाओ । राजा के आदेश से कोड़े लगाये । उन श्रमणों ने कहा- हम तो तुम्हें श्रावक समझकर आये थे, पर तुम तो हमें पिटवा रहे हो । राजा के कड़ककर कहा- तुम तस्कर हो या गुप्तचर हो या अन्य कुछ हो, यह कौन जानता है ? उन श्रमणों ने कहा- हम तो साधु हैं । राजा ने कहा- तुम साधु हो या चारक हो, यह निश्चयपूर्वक कौन कह सकता हैं ? मैं श्रावक हूँ या नही हूँ, यह भी निश्चयपूर्वक कौन कह सकता है ? श्रमणों को अपनी भूल का भान हुआ । उन्होंने अपने अज्ञान पर खेद जाहिर किया । राजा ने कहा- मैंने आपको प्रतिबोध देने हेतु ही यह उपक्रम किया था, अतः आप मुझे क्षमा करें। अव्यक्तवाद का यह अभिमत था कि सभी कुछ अनिश्चित है, अवक्तव्य है । निश्चय पूर्व कुछ भी नहीं कह सकते। यह पूर्ण स्पष्ट है कि अव्यक्तवाद के प्रवर्तक आचार्य आषाढ़ नहीं थे । आचार्य आषाढ़ का देव रूप इस वाद का निमित्त बना था, इसीलिए वे इस वाद के प्रवर्तक रूप में विश्रुत हुए। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि आचार्य आषाढ़ के शिष्यों ने अव्यक्तवाद का प्रचलन किया। जिस समय प्रस्तुत घटना या प्रस्तुत प्रसंग उट्टंकित किया गया, उस समय उन शिष्यों का नाम स्मरण न होने से सांकेतिक रूप में अभेदोपचार की दृष्टि से आचार्य आषाढ़ का नाम दिया गया । आचार्य अभयदेव का अभिमत है - आचार्य आषाढ़ अव्यक्त मत की संस्थापना करने वाले श्रमणों के आचार्य थे, इसीलिए वे अव्यत्तवाद के आचार्य के रूप में विश्रत हुए।" १ सोऽपव्यक्तमतधर्माचार्यो, न चायं तन्मतप्ररूपकत्वेन किन्तु प्रागवस्थायामिति । - स्थानांगवृत्ति, पत्र ३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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