SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निह्नव कथाएँ २६१ सोच रहा था-अन्य सामग्री यह मुझे बाद में देगा। मित्रश्री ने तिष्यगुप्त के चरणों में नमस्कार करके कहा-मैं महान् सौभाग्यशाली हूँ आप जैसे गुरुजनों को पाकर ! धन्य है मेरे भाग्य जो अपने असोम अनुकम्पा की। यह सुनते ही तिष्यगुप्त को क्रोध आ गया। उसने कहा-तुमने मेरा अपमान किया है। मित्रश्री ने निवेदन किया-मैं आपश्रो का अपमान कैसे कर सकता हूँ ? मैंने तो आपके सिद्धान्त के अनुसार ही आपश्री को भिक्षा प्रदान की है। आपश्री अन्तिम प्रदेश को ही वास्तविक मानते हैं। दूसरे प्रदेशों को नहीं, इसलिए मैंने प्रत्येक पदार्थ का अन्तिम भाग आपको दिया है। __ तिष्यगुप्त को अपनी भूल का परिज्ञान हआ। मित्रश्री ने अच्छी तरह से भिक्षा बहराई । तिष्यगुप्त पुनः भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित हो गया । ___ जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। किन्तु जीवप्रादेशिकवाद के मतानुसार जीव के चरम प्रदेश को ही जीव माना जाता था, शेष प्रदेशों को नहीं। अव्यक्तिकवाद के प्ररूपक : 'आचार्य आषाढ़" भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के दो सौ चौदह वर्ष पश्चात् श्वेताम्बिका नगरी में 'अव्यक्तवाद' की उत्पत्ति हुई। इस बाद के प्रवर्तक आचार्य आषाढ़ के शिष्य थे। एक बार श्वेताम्बिका नगरी के पोलास उद्यान में वे अपने शिष्यों को योगाभ्यास करा रहे थे । एकाएक आचार्य आषाढ़ को हृदयशूल उत्पन्न हुआ और वे उसी क्षण मर गये । सौधर्म कल्प में देव बने । अवधिज्ञान से अपने मृत कलेवर को और योग-साधना में लीन शिष्यों को देखा । योग-साधना में शिष्य इतने तल्लीन थे कि गुरु के मरने का भान भी उन्हें नहीं या। देव रूप आचार्य सोचने लगे-मेरे बिना शिष्यों को कोन वाचना देगा ? अतः उन्होंने पुनः अपने मृत शरीर में प्रवेश किया। जब शिष्यों की योगसाधना का क्रम पूरा हो गया तो आचार्य १ आवश्यक, मलयगिरीवृत्ति, पत्र ४०५-४०६. २ चउदस दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । अव्वत्तगाण दिट्ठी, सेअविआए समुप्पन्ना ॥ -आवश्यकभाष्य, गाथा १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy