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________________ २६० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा विराज रहे थे। वे भगवान् के सन्निकट पहुंचे और कहा-आपके अन्य शिष्य असर्बज्ञ दशा में ही आप से पृथक हए हैं, पर मैं सर्वज्ञ होकर आपसे अलग हुआ हूँ। प्रश्नोत्तर भी हुए किन्तु जमालि अपनी धारणा पर ही अडिग रहे । 'क्रियमाग कृत नहीं है, इस सिद्धान्त के प्रचार-प्रसार में लगे रहे । वे महावीर के संघ में सम्मिलित नहीं हुए। बहुरतवादी द्रव्य की निष्पत्ति में दीर्घकाल की अपेक्षा स्वीकार करते हैं, किन्तु क्रियमाण को कृत नहीं मानते। कार्य निष्पन्न होने पर ही उसका अस्तित्व स्वीकार करते हैं। (भगवती शतक ६, उ० ३३) जीवप्रादेशिकवाद के संस्थापक : "तिष्यगुप्त" भगवान् महावीर के कैवल्य-प्राप्ति के सोलह वर्ष पश्चात् ऋषभपुर में जीव प्रादेशिकवाद की उत्पत्ति हई। राजगृह का प्राचीन नाम ऋषभपुर था। एक बार आचार्य वसु राजगृह आये। वे चौदह पूर्व के धारक थे। अपने शिष्य तिष्य गप्त को आत्मप्रवाद पूर्व का अध्ययन करा रहे थे। उसमें भगवान महावीर और गौतम का सम्वाद था। गौतम ने कहा-भगवन् ! क्या जीव के एक प्रदेश को जीव कहा जा सकता है ? भगवान्-नहीं ! दो, तीन यावत् संख्यात प्रदेश को भी जीव नहीं कह सकते हैं। द्रव्य में से एक प्रदेश न्यून को भी जीव नहीं कहा जा सकता। जीव अखण्ड चेतन द्रव्य है। तिष्यगुप्त का मन आशंकित हो उठा। उसने कहा-अन्तिम प्रदेश के बिना शेष प्रदेश जीव नहीं है । अन्तिम प्रदेश ही जीव है । आचार्य वसु ने विविध दृष्टान्त देकर तिष्य गुप्त को समझाने का प्रयास किया, पर वह नहीं समझा । इसलिए उसे संघ से पृथक् कर दिया। तिष्यगुप्त अपने मत का प्रचार-प्रसार करने लगा। वह एक बार आलमकप्पा नगरी के अम्बसाल चैत्य में ठहरा हुआ था । उस गगरी में 'मित्रश्री' श्रमणोपासक था। वह उसका उपदेश सुनने के लिए पहुँचा। मित्रश्री को लगा-इसका उपदेश मिथ्या है। उसे समझाने की दृष्टि से एक दिन वह अपने घर पर भिक्षा के लिए ले गया और विविध प्रकार के खाद्य तिष्यगुप्त के सामने प्रस्तुत किये । प्रत्येक पदार्थ का एक-एक कण उसे देने लगा। तिष्य गुप्त १ आवश्यकभाष्य, गाथा १२७ । २ आवश्यकनियुक्ति दीपिका पत्र १४३, ऋषभपुरं राजगृहस्याद्याह्वा ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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