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निह्नव कथाएँ २५६ को कृत कहते हैं, यह सिद्धान्त मिथ्या है। मैं प्रत्यक्ष निहार रहा हैं-बिछौना किया जा रहा है, उसे कृत कैसे माना जाये ? तात्कालिक घटना के आधार पर उन्होंने निश्चय किया 'क्रियमाण को कृत नहीं कहा जा सकता' । जो कार्य सम्पन्न हो चुका है उसे ही कृत कहा जा सकता है। कार्य की निष्पत्ति अन्तिम क्षणों में होती है, प्रथम, द्वितीय प्रभृति क्षणों में नहीं। उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को बुलाकर कहा-भगवान महावीर जो चलायमान है उसे चलित, जो उदोर्यमान है, उसे उदीरित और जो निर्जीर्यमान है उसे निर्जीर्ण कहते हैं, पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि यह धारणा मिथ्या है । बिछौना क्रियमाण है किन्तु कृत नहीं, संस्तीर्यमाण है किन्तु संस्तृत नहीं है।
कितने ही निर्ग्रन्थ श्रमण जमालि के कथन से सहमत हुए तो कितने ही निर्ग्रन्थ श्रमणों को उनका कथन उचित नहीं लगा। स्थविर निन्थों ने जमालि को समझाने का भी उपक्रम किया, और जब देखा कि वे किसी भी स्थिति में अपनी मिथ्या धारणा को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं तो वे जमालि को छोड़कर भगवान् महावीर की शरण में पहुँच गये।
महासती प्रियदर्शना श्रावस्ती में ही ढंक कुम्भकार के यहाँ ठहरी हुई थी। जब वह जमालि के दर्शनार्थ आई तो जमालि ने अपनी सारी बात उससे कही। अनुराग के कारण प्रियदर्शना को भी जमालि की बात सही प्रतीत हुई। उसने अन्य साध्वियों को भी जमालि का सिद्धान्त समझाया। प्रियदर्शना ने ढंक कुम्हार को भी जमालि के सिद्धान्त से परिचय कराया। ढंक ने कहा-जमालि वाला सिद्धान्त मुझे यथार्थ नहीं लगता, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी प्रभु महावीर को वाणो सत्य है ।
एक बार प्रियदर्शना स्वाध्याय में रत थी । ढंक ने एक अंगारा उस पर फेंका, उसकी संघाटी [साड़ी] का एक कोना जल गया। साध्वी ने कहा-ढंक ! तुमने मेरी संघाटी क्यों जलाई ? उसने कहा-संघाटो कहाँ जली, वह तो जल रही है। ढंक ने क्रियमाण कृत का रहस्य समझाया। प्रियदर्शना को अपनी भूल का परिज्ञान हुआ। उसने जमालि को समझाने का प्रयत्न किया । जब जमालि न समझा तो वह हजार साध्वियों के साथ भगवान महावीर के संघ में चली गई।
जमालि एक बार चम्पा नगरो गये, वहीं पर भगवान् महावीर भी
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