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________________ १२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा और प्रकीर्णकों में पाई जाती हैं । इसमें ७५६० श्लोक प्रमाण हैं ।1 खरतरगच्छ के गुणरत्नसूरि के शिष्य पद्ममंदिरगणि ने इसकी सर्जना वि० सं० १५५३ में की थी। कथारत्नाकर-यह पन्द्रह तरंगों में विभाजित है। इसे 'कथारत्न सागर' भी कहते हैं । इसकी एक ताड पत्रीयप्रति सं० १३१६ की मिलती है। नरचन्द्रसूरि विरचित इस ग्रंथ में २०६१ श्लोक-प्रमाण हैं। सम्पूर्ण रचना अनुष्टुप् छंद में प्रणीत है। इसी नाम से अन्य कृति कथाकोश की दृष्टि-पथ पर आती है। जिसके रचयिता तपागच्छीय कल्याणविजयगणि के शिष्य हेमविजय गणि हैं। इस कोश की रचना संवत् १६५७ में हुई। यह कथाकोश दस तरंगों में विभक्त है जिनमें कुल मिलाकर २५८ कथाएँ हैं।' यह कथाएँ परस्पर में संश्लिष्ट की गई हैं, एक ढाँचे में सजाई नहीं गई हैं। इस कृति में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पुरातन हिन्दी, प्राचीन गुजराती और महाराष्ट्री के उद्धरण प्रचुर मात्रा में अपनाए गए हैं। सरल संस्कृत में प्रणीत यह कृति सरस एवं नैतिकता की शैक्षिक-संवाहिका है। 'कथारत्नाकर' नाम से उत्तमर्षि प्रणीत एक रचना और है। इसे १. जिनरत्नकोश, पृष्ठ ६०, ऋषिमण्डल प्रकरण, आत्मवल्लभ ग्रन्थमाला, सं० १३, वलद, १६३६, प्रस्तावना विशेष रूप से द्रष्टव्य है। २. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ६, डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ २५०-२५१ । ३. जिनरत्नकोश, पृष्ठ ६६, पाटन की हस्तप्रतियों का सूची पत्र, भाग १, पृष्ठ १४ । - ४. इत्य भ्यर्थनया चक्रर्वस्तुपालमंत्रिण: । ____नरचन्द्र मुनीन्द्रास्ते श्रीकथारत्नसागरन् ।। ५. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ६, डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ २५१ । ६. अहिमन्नगरद्रंगे वर्षेष्यश्वेषु रसावनौ। ___मूल मार्तण्ड संयोगे चतुर्दश्यां शुचौ शुचेः ।। -प्रशस्ति ७. हीरालाल हंसराज , जामनगर, १६११, इसका जर्मन अनुवाद १९२० में हर्टल महोदय ने किया है। ८. विण्टरनित्स, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृष्ठ ५४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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