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________________ श्रमणोपासक कथाएँ २५५ मद्र क----वस्तु के कार्य से उसका अस्तित्व जाना और देखा जा सकता है । बिना कार्य के कारण दिखाई नहीं देता। अन्यतीर्थी-तू कैसा श्रमणोपासक है, जो पंचास्तिकाय को जानता, देखता नहीं; तथापि मानता है । मद्रक-पवन बहती है यह सत्य है न ? अन्यतीर्थी-हाँ, बहती है। मद्रक-बहती हुई पवन को तुम देखते हो ? अन्यतीर्थी-वह दिखाई नहीं देती। मद्रुक–पवन में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों का अनुभव होता है न ? उन सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले पुद्गलों को क्या तुम देखते हो ? अन्यतीर्थी-नहीं देखते। मद्र क-अरणि की लकड़ी में अग्नि रही हुई है, क्या उसे देखते हो ? अन्यतीर्थी-नहीं। मद्रक-समुद्र के पार गाँव, नगर, जंगल आदि बहुत से पदार्थ हैं, क्या उन्हें तुम देखते हो? अन्यतीर्थी-नहीं। मद्रक-देवलोकों में विविध प्रकार के पदार्थ हैं, क्या उन्हें तुम देखते हो ? अन्यतीर्थी-नहीं। मद्रक ने विषय को स्पष्ट करते हए कहा-जिन पदार्थों को तुम नहीं देखते हो, यदि उनका अस्तित्व नहीं माना जाय तो तुम्हारी दृष्टि से बहुत से पदार्थों का अभाव हो जायेगा। अतः तुम्हारा कथन युक्तियुक्त नहीं है। अन्यतीर्थी मद्र क के तर्कों का उत्तर न दे सके, वे अपना नन्हा-सा मुह किये चल दिये। मद्रुक भगवान् के समवसरण में पहुँचा। भगवान् ने मद्रक को सम्बोधित कर कहा-तुमने अन्यतीथिकों को उचित उत्तर दिया है । यह सुनकर श्रमणोपासक मद्रक अत्यन्त प्रसन्न हुआ। गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् ने कहा-यह श्रमणोपासक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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