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________________ श्रमणोपासक कथाएँ २५३ चम्पा का अधिपति कूणिक सम्राट था। वह भगवान् महावीर का परम उपासक था। उसकी भक्ति का जीता जागता चित्र यहाँ उपस्थित किया गया है। भगवान महावीर का चम्पानगरी में शुभागमन होता है। उनका विराट समवसरण लगता है । सम्राट कूणिक भगवान् को वन्दन के लिए पहुँचता है और उसकी सुभद्रा आदि देवियाँ भी। भगवान धर्मोपदेश देते हैं । सम्राट कूणिक जैन था या बौद्ध ? इस प्रश्न पर हमने अन्यत्र चिन्तन किया है, अतः विशेष जिज्ञासु वहाँ देखें। ___अम्बड परिव्राजक ___ भगवती सूत्र में अम्बड परिव्राजक के सम्बन्ध में संक्षेप में उल्लेख है। औपपातिक में विस्तार से निरूपण है। अम्बड परिव्राजक नामक एक अन्य व्यक्ति का भी उल्लेख हआ है जो आगामी चौबीसी में तीर्थंकर होगा । औपपातिक में आये हुए अम्बड महाविदेह में मुक्त होंगे। इसलिए दोनों अलग-अलग व्यक्ति होने चाहिए । अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य थे । वे कम्पिलपुर नगर से पुरिमताल नगर के लिए प्रस्थित हुए। भयानक जंगल में साथ का जल समाप्त हो गया, किन्तु वहां कोई भी व्यक्ति जल देने वाला न होने से उन्होंने शान्त चित्त से भगवान् महावीर को और अपने धर्माचार्य अम्बड परिव्राजक को नमस्कार किया। महाव्रतों को ग्रहण कर संलेखना सहित आयु पूर्ण किया। अम्बड परिव्राजक को वीर्यलब्धि एवं वैक्रिय-लब्धि के साथ अवधिज्ञान-लब्धि भी प्राप्त थी। वह कम्पिलपूर के सौ घरों में आहार करता था। उसकी आचार-संहिता श्रमणाचार से मिलती-जुलती थी । यद्यपि कच्चे पानी आदि का उपयोग ऐसी बातें हैं, जो श्रमणाचार से मेल नहीं खाती, इसीलिए अम्बड परिवाजक को श्रमणोपासक माना है। उसने श्रावक व्रत ग्रहण किए थे। अम्बड की भगवान् महावीर के प्रति अनन्य आस्था थी । अन्त में मासिक संलेखना के साथ आयु पूर्ण कर ब्रह्म देवलोक में पैदा हुआ और वहाँ से च्युत होकर महाविदेह में दृढ़प्रतिज्ञ कुमार होगा। वहां से सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होगा। १ औपपातिक सूत्र प्रस्तावना, ले० देवेन्द्र मुनि शास्त्री पृ० २०-२४ २ भगवती सूत्र, शतक १४, उद्देशक ८ ३ स्थानांग सूत्र ६ स्था., सूत्र ६६२. मुनि कमल संपादित ४ यश्चौपपातिकोपांगे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते । -स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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