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________________ श्रमणोपासक कथाएँ २५१ (१) शस्त्र-परिणत-अग्नि आदि से निर्जीव बना हुआ और (२) अशस्त्र परिणत-निर्जीव नहीं बना हआ। जो अशस्त्र परिणत है, वह अभक्ष्य है । शस्त्र परिणत भी दो प्रकार का है-एषणीय और अनेषणोय । एषणीय सरिसव भी दो प्रकार का है-याचित और अयाचित । अयाचित श्रमणों के लिए त्याज्य है। याचित भी दो प्रकार का है-लब्ध और अलब्ध । अलब्ध श्रमणों के लिए अभक्ष्य है और लब्ध श्रमणों के लिए भक्ष्य है । इसलिए सरिसव मेरे लिए भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी। सोमिल ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की-मास भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? महावीर ने कहा- ब्राह्मण ग्रन्थों में मास दो प्रकार का कहा गया है-द्रव्य मास और काल मास । जो काल मास है श्रावण, भाद्रभद आदि, वह श्रमण निग्रन्थों के लिए अभक्ष्य है । द्रव्य मास दो प्रकार का है-अर्थ माष और धान्य माष । अर्थ माष दो प्रकार का है-स्वर्ण माष और रौप्य माष, जो श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य है। धान्य माष दो प्रकार का है-शस्त्र परिणत माष और अशस्त्र परिणत माष। ये सभी मास, जो शस्त्र परिणत हैं वह सरिसव के समान भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। भगवन् ! कुलत्था भक्ष्य है अथवा अभक्ष्य है ? भगवान् ने कहाकुलत्था भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। वह दो प्रकार का है-स्त्री कुलत्था और धान्य कुलत्था, स्त्री कुलत्था तीन प्रकार की है-कुलकन्या, कुलवधू, कुलमाता, जो श्रमणों के लिए अभक्ष्य है। धान्य कुलत्था के सम्बन्ध में धान्य सरिसव के समान समझना। कुलत्था भक्ष्य भी है, अभक्ष्य भो। सोमिल ने पुनः पूछा-भगवन् ! आप एक हैं या अनेक हैं ? अक्षय, अव्यय, अवस्थित या भूतभाव भविक हैं ? ___ भगवान्-मैं एक भी हूँ और अनेक भी। मैं द्रव्य रूप से एक हूँ, ज्ञान और दर्शन के भेद से दो हैं, आत्म-प्रदेश से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ और अवस्थित भी । उपयोग की अपेक्षा से अनेक भूत, वर्तमान और भावी परिणामों के योग्य हूँ । अर्थात् नाना रूपधारी भी हूँ। सोमिल के अद्वैत, द्वैत, नित्यवाद और क्षणिकवाद जैसे गम्भीर प्रश्न जो लम्बे समय तक चर्चा करने पर भी सुलझ नहीं सकते थे, उन सभी प्रश्नों का भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से क्षण भर में समाधान कर दिया । सोमिल महावीर को शब्द जाल में फंसाना चाहता था, इसीलिए उसने श्लिष्ट शब्दों का प्रयोग किया था, पर भगवान् तो केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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