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________________ २५० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है बशर्ते वह पापों की आलोचना कर कषाय से मुक्त होकर समभाव में आयु पूर्ण करे। यदि कषाय की आग में सैनिक झुलस रहा है तो उसकी गति नरक एवं तिथंच की होगी। बबूल का पेड़ बोकर आम की आशा करना मिथ्या है। वैसे ही कषायभाव में सद्गति सुलभ नहीं है। सोमिल ब्राह्मण भगवती सूत्र शतक १८ उद्देशक १० में सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक का वर्णन है । वाणिज्यग्राम में सोमिल ब्राह्मण था । वह वेदों का पारंगत विद्वान था। उसके पाँच सो शिष्य थे। वहाँ पर भगवान् महावीर का आगमन हुआ । सोमिल ब्राह्मण ने सोचा-मैं अपने शिष्यों के साथ भगवान् के पास जाऊँ, यदि वे मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकेंगे तो मैं उन्हें निरुत्तर कर दूंगा । इस प्रकार विचार कर वह महावीर के पास आया और पूछाभगवन् ! आपके यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार क्या हैं ? भगवान् ने कहा-हाँ हैं। वह तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, और आवश्यक आदि योगों में मेरी जो यतना (प्रवृत्ति) है, वह मेरो यात्रा है। यापनीय दो प्रकार का है-इन्द्रिय यापनीय और नोइन्द्रिय यापनीय। पाँचों इन्द्रियाँ निरुपहत (उपधात रहित) मेरे अधीन प्रवृत्ति करती हैं, यह मेरा इन्द्रिय यापनीय है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय मेरे पूर्ण रूप से नष्ट हो गये हैं, वे उदय में नहीं है, यह मेरा नोइन्द्रिय यापनीय है। मेरे वात, पित्त, कफ और सन्निपात जन्य अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी दोष और रोगतंक उपशान्त हो गये हैं, वे उदय में नहीं आते, यह मेरा अव्याबाध है। आराम, उद्यान, देवकूल सभा, प्रपा, विविध स्थानों में जो स्त्री, पशु, पंडक रहित बस्तियों में प्रासुक एषणीय पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि प्राप्त कर मैं विचरण करता है, यह मेरे लिए प्रासुक विहार है। सोमिल ने पुनः प्रश्न किया-सरिसव भक्ष्य है अथवा अभक्ष्य ? भगवान्-सोमिल ! ब्राह्मण ग्रन्थों में सरिसव दो प्रकार के बताये गये हैं-१. समान वय वाला सरिसव (सदृशवय) मित्र २. धान्य सरिसव । जो मित्र सरिसव है वह सहजात, सहबधित और सहपांसुक्रीड़ित ये तीनों प्रकार के सरिसव श्रमणों के लिए अभक्ष्य हैं । धान्य सरिसव दो प्रकार का है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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