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________________ श्रमणोपासक कथाएँ २४६ का परिज्ञाता था तथा व्रती था । छट्ठ-छट्ठ की तपस्या से अपनी भात्मा को भावित करता हआ रहता था। राजा के आदेश से उसे रथमूसल संग्राम में जाना पड़ा । उसने युद्ध में प्रवृत्त होते समय यह नियम लिया कि जो मुझ पर पहले वार करेगा, उसी को मुझे मारना योग्य है, दूसरे को नहीं। वह नियम लेकर संग्राम करने लगा। वरुणनागनप्तृक के सहण ही एक व्यक्ति समान वय और आकृति वाला वहाँ आया और कहा-मेरे पर प्रहार करो। उसने कहा-जब तक कोई मेरे पर प्रहार नहीं करता, वहाँ तक मैं भी प्रहार नहीं करता हूँ। उसने वरुणनागनप्तृक पर बाण का प्रहार किया जिससे वह घायल हो गया। उसके बाद ही वरुणनागनप्तक ने उस व्यक्ति पर प्रहार किया जिससे वह भूमि पर लुढ़क पड़ा। पुनः उसने प्रहार किया जिससे वरुणनागनप्तृक के प्राण संकट में पड़ गये । जीवन की सांध्यवेला समझकर उसने रथ को एकान्त स्थान में ले जाने का आदेश दिया। रथ से उतरकर, दर्भ का आसन बिछाकर वरुणनागनप्तृक ने अरिहंत को नमस्कार किया एवं जीवन पर्यन्त के लिए व्रतों को ग्रहण किया। कवच को खोला और शरीर में से बाण को बाहर निकाला तथा समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ। वरुणनागनप्तृक का बाल मित्र युद्ध कर रहा था। वह भी घायल हआ । वरुणनागनप्तक के पीछे-पीछे आया और संथारा कर मृत्यु का वरण किया। सन्निकट में रहे हुए देवों ने सुगन्धित जल और पुष्पों की वर्षा की और गीत व गन्धर्व-नाद भो । लोगों ने समझा-जो संग्राम करते हुए मरते हैं, वे देवलोक को प्राप्त होते हैं, पर उन्हें यह पता नहीं कि कैसे व्यक्ति स्वर्ग में जाते हैं ? (भगवती श. ७, उ. ६) गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! वरुणनागनप्तक कहाँ गया ? भगवान् ने कहा-वह सौधर्म देवलोक में गया और उसका मित्र मानव बना। वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होगा। प्रस्तुत कथानक में, वैदिक परम्परा तथा लोक-धारणाओं में यह बात फैली हुई थी कि रण-क्षेत्र में मरने वाला व्यक्ति स्वर्ग को वरण करता है । इस दृष्टि से लोग युद्ध में मरने को श्रेयस्कर मानते थे। इस मिथ्याधारणा का इसमें निरसन किया गया है। रणक्षेत्र में भी मरने वाला व्यक्ति १ हिन्दी साहित्य का इतिहास-वीरगाथा काल का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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