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________________ २४८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की--जागरिका कितने प्रकार की है ? भगवान् ने उत्तर दिया-जागरिका तीन प्रकार की है-१. बुद्ध जागरिका २. अबुद्ध जागरिका और ३. सुदर्शन जागरिका । सर्वज्ञों की जागरिका बुद्ध जागरिका है, अणगार की जागरिका अबुद्ध जागरिका है और श्रावकों की जागरिका सुदर्शन जागरिका है। शंख ने भगवान् महावीर से पूछा-क्रोध आदि कषाय के वशीभूत जीव कौन से कर्म बांधता है अथवा चय-उपचय करता है ? भगवान् ने कहा-वह सात या आठ कर्मों को बांधता है, शिथिल कर्म प्रकृतियों को दृढ़ करता है। पुष्कली आदि सभी श्रावकों ने शंख से क्षमायाचना की। गौतम ने पूछा-क्या शंख प्रव्रज्या ग्रहण करेगा ? भगवान् ने कहा-नहीं, वह श्रावकधर्म का ही पालन करेगा। प्रस्तुत कथानक में पोषध का उल्लेख हुआ है । पौषध के १ आहार पौषध २ शरीर पौषध ३ ब्रह्मचर्य-पौषध और ४ अव्यापार-पौषध-ये चार प्रकार हैं । शंख श्रावक ने प्रतिपूर्ण पोषध किया था। आवश्यकवृत्ति में पौषधोपवास का लक्षण इस प्रकार किया गया है-"धर्म और अध्यात्म को पुष्ट करने वाला विशेष नियम धारण करके उपवास सहित पौषध में रहना। पौषध शब्द संस्कृत के 'उपवसथः' शब्द से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है-धर्माचार्य के समीप या धर्मस्थान में रहना । धर्मस्थान में निवास करते हुए उपवास करना पौषधोपवास है । दूसरे शब्दों में कहें तो पौषध व्रत का अर्थ पोषना, तृप्त करना है। शरीर को भोजन से तृप्त करते हैं वैसे ही आत्मा को व्रत से तृप्त करना। पौषध में आत्मचिन्तन, आत्मशोधन, आत्मविकास का पुरुषार्थ किया जाता है । जब साधक आत्मचिन्तन करता है तो उसे अपने अन्तर् में रही हुई कमजोरियों का ज्ञान होता है और जिन शक्तियों की न्यूनता है, उनकी सम्पूर्ति के लिए वह प्रयास करता है। व्यक्ति दूसरों को सुधार नहीं सकता पर अपने आपको वह सुधार सकता है । पौषध में साधक सांसारिक प्रवृत्तियों से मुक्त होकर धर्म-जागरण और आत्म-जागरण करता है । (भगवती श. १२, उ. १) वरुणनागनतृक श्रमणोपासक वैशाली में वरुणनागनप्तृक श्रमणोपासक था। वह जीवादि तत्त्वों १ पौषधे उपवसनं पौषधोपवासः नियमविशेषाभिधानं चेदं पौषधोपवासः । -आवश्यकवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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