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________________ २४४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा हो चुके थे, पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था। शकडालपुत्र रात्रि में धर्माराधना कर रहा था। एक देव आया। उस देव ने उसके तीनों पुत्रों को मारकर नो-नो मांसखण्ड किये । खोलते हुए पानी में उबालकर उसको शकडालपुत्र के ऊपर छींटा तो भी वह विचलित नहीं हुआ। देव ने सोचा-इसका अग्निमित्रा पत्नी पर अत्यधिक अनुराग है, अतः उसी तरह उसे भी मारने की धमकी दी। वह क्षुभित हो उठा, देव को पकड़ने के लिए ज्योंही हाथ आगे बढ़ाये त्योंही हाथ खम्भे से टकरा गये। उसकी चीत्कार को सुनकर अग्निमित्रा वहाँ आई और बोली-आपने व्रत को भंग कर दिया है, प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करें। शकडालपुत्र ने वैसा ही किया। जीवन के अन्तिम क्षणों तक जागरूकता से उसकी साधना चलती रही। आयु पूर्ण कर वह अरुणामत विमान में देव बना। (उपासकदशांग अ. ७) महाशतक राजगृह में महाशतक गाथापति था। उसके पास चौबीस करोड़ स्वर्णमुद्रायें थीं। दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल थे। उसके तेरह पत्नियाँ थीं । उनमें रेवती प्रमुख थी। रेवती अपने पीहर से आठ करोड़ स्वर्णमुद्रायें और दश-दश हजार गायों के आठ गोकुल प्रीतिदान के रूप में लाई थी, अन्य बारह पत्नियाँ भी एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्रायें और दसदस हजार गायों का एक गोकुल प्रीतिदान के रूप में लाई थीं। उस युग में पुत्रियों को पीहर से विराट सम्पत्ति प्राप्त होती थी और उस पर उन पत्नियों का ही अधिकार रहता था। भगवान् महावीर के उपदेश को श्रवण कर महाशतक ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये। महाशतक की पत्नी रेवती के अन्तर्मानस में अर्थ और भोग के प्रति तीव्र अभिलाषा थी। एक बार उसके मन में विचार आया-मैं बारह ही सौतों को मार दूं तो उनकी सारी सम्पत्ति पर मेरा अधिकार हो जायेगा और मैं एकाकिनी विषय-भोगों का सेवन करूंगी। उसने अपनी सौतों को मरवा दिया। रेवती मांस और मदिरा का भी उपभोग करती थी। एक बार राजगृह में अमारि (प्राणी-वध-निषेध) की घोषणा कर दी गई । रेवती ने अपने गोकुल में से दो-दो बछड़े प्रतिदिन मारकर गुप्त रूप से लाने की व्यवस्था की। महाशतक के जीवन में नया मोड़ आ गया। श्रावक के व्रतों का पालन करते हुए उसे चौदह वर्ष व्यतीत हो गये थे। अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर का भार सम्हला कर स्वयं पोषधशाला में धर्मोपासना करने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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