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________________ श्रमणोपासक कथाएँ २४३ आगमन की सूचना दी थी न ? शकडालपुत्र भगवान् महावीर के दिव्य ज्ञान से प्रभावित हुआ। उसने भगवान् से निवेदन किया-मेरी कर्मशाला में पधारें और आवश्यक सामग्री ग्रहण करें। भगवान् महावीर वहाँ पधारे । एक दिन शकडालपुत्र बर्तनों को धूप दे रहा था। भगवान् ने पूछा -ये बर्तन कैसे बने ? शकडालपुत्र ने निवेदन किया-पहले मिट्टी एकत्र की, फिर उसे भिगोया, राख और गोबर मिलाया, गूधा तथा सबको एकएक कर चाक पर चढ़ाया और विभिन्न प्रकार के बर्तन बनाये । भगवान्-ये बर्तन पुरुषार्थ से बने हैं अथवा अपुरुषार्थ से । शकडालपुत्र-इसमें पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं । जो कुछ होना होता है, वह निश्चित है। ___ भगवान् कल्पना करो, कोई व्यक्ति तुम्हारे बर्तनों को तोड़ दे, फोड़ दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ बलात्कार करे तो तुम क्या करोगे ? शकडालपुत्र-मैं उसे फटकारूंगा, दण्ड दूंगा और अधिक करेगा तो उसकी जान ले लूगा। भगवान्-तुम ऐसा क्यों करते हो ? क्योंकि तुम्हारी दृष्टि से जो कुछ भी होने वाला है, वह नियत है । फिर उसे दोषी क्यों मानते हो ? यदि तुम यह मानते हो कि वह पुरुषार्थ करता है तो नियतिवाद का सिद्धांत खण्डित हो जाता है। ___ शकडालपुत्र भगवान् महावीर के सामने नत हो गया। उसने श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण किये और उसकी पत्नी अग्निमित्रा ने भी। मंखलिपुत्र गोशालक ने जब यह सुना तो उसे दुःख हुआ क्योंकि वह उसका प्रमुख धावक था । वह आजीवकों के उपाश्रय में ठहरकर शकडालपत्र के पास आया, पर शकडालपुत्र ने कोई आदरभाव प्रकट नहीं किया। गौशालक ने भगवान् महावीर की खूब स्तवना की । शकडालपुत्र ने अपने गुरु महावीर की स्तवना से प्रभावित होकर कहा-आप मेरी कर्मशाला में रुकें। गौशालक भी यही चाहता था। उसने विविध तर्क देकर उसे समझाने का प्रयास किया पर शकडालपत्र की धर्मश्रद्धा विचलित नहीं हुई । निराश होकर गौशालक ने वहां से प्रस्थान कर दिया। श्रावक व्रतों की आराधना एवं साधना करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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