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२४२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
कुण्डकौलिक-तो फिर प्रत्येक प्राणी जो पुरुषार्थ नहीं करते हैं, वे देव क्यों नहीं बने ?
देव कुण्डकौलिक के तर्क का उत्तर नहीं दे सका। वह अंगूठी और उत्तरीय को शिलापट्ट पर रखकर चल दिया।
दूसरे दिन भगवान महावीर का काम्पिल्यपुर नगर में पदार्पण हुआ। कुण्डकौलिक वन्दन के लिए गया। भगवान् ने देव-परीक्षा की बात कही और साधु-साध्वियों को प्रेरणा देते हुए कहा-कुण्डकोलिक कितना गहरा तत्त्ववेत्ता है। उसने अपनी युक्ति से देव को निरुत्तर कर दिया। कुण्डकौलिक की घटना को महत्त्व देने का यही कारण था कि साधकों को अपने सिद्धान्तों का सम्यक् परिबोध होना चाहिए ।
कुण्डकौलिक ने पन्द्रहवें वर्ष में एकादश प्रतिमाओं को ग्रहण किया। उसके पूर्व चौदह वर्ष तक वह व्रतों का पालन करता रहा था। अन्त में एक मास की संलेखना-संथारा द्वारा आयुष्य को पूर्ण करके वह सौधर्म देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ।
(उपासकदशांग अ० ६) शकडालपुत्र
पोलासपुर नगर में शकडालपुत्र नामक एक कुम्भकार था। उसके पास तीन करोड़ स्वर्णमुद्राएँ थीं और दस हजार गायों का एक गोकुल था। उसका प्रमुख व्यवसाय था-मिट्टी के बर्तन तैयार करना और बेचना । पोलासपुर नगर के बाहर उसकी पाँचसौ कर्मशालायें थी । जहाँ अनेक वैतनिक कर्मचारी काम करते थे। वे बर्तन तैयार करते और सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें बेचते थे। शकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। वह गौशालक का प्रमुख अनुयायी था । एक बार शकडालपुत्र अशोकवाटिका में धर्माराधन कर रहा था। उस समय एक देव ने प्रकट होकर कहा-कल प्रातः महामहिम, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, त्रैलोक्यपूजित, अर्हत, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आयेंगे। उनकी तुम पर्युपासना करना।
दूसरे दिन भगवान महावीर सहस्राम्र उद्यान में पधारे। शकडालपुत्र दर्शन करने के लिए गया। वह तो मन में सोच रहा था कि भगवान गौशालक पधारेंगे और उसी दृष्टि से वह वहाँ पर पहुँचा। भगवान् महावीर ने उसे सुलभबोधि जानकर कहा-कल देव आया था न ? और उसने मेरे
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