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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
कथारत्नकोश -- 'कहारयणकोस' अर्थात् कथारत्नकोश संवत् १९५८ में श्री प्रसन्नचन्द्र के शिष्य श्री देवभद्रसूरि द्वारा सृजित है । इसमें पचास कथाएँ हैं जो दो बृहत् अधिकारों में विभक्त हैं । प्रथम अधिकार में तेतीस कथाएँ हैं, दूसरे अधिकार में सत्रह कथाएँ हैं । मुक्ति पथ के बतलाने हेतु आदर्श कथाओं का प्राकृत में प्रणयन किया गया है। इस कथाकोश में कहीं-कहीं संस्कृत के और अपभ्रंश के पद्यों को उदाहृत कर साधु और श्रावकों के आवश्यक व्रतों, नियमों और कर्त्तव्यों का बड़े प्रभावक ढंग से प्रतिपादन किया गया है ।
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कथामणिकोश -- अक्खाणयमणिकोस अर्थात् आख्यानकमणिकोश के नाम से इस कोश को सम्बोधित किया जाता है । यह १२७ उपदेशनिष्ठ कथाओं का बृहद् संग्रह है । इसमें इकतालीस अध्याय हैं । प्राकृत में रचित इस कोश के रचयिता आचार्य देवेन्द्र गणि' हैं । इनका अपर नाम नेमिचन्द्र सूरि है । कथामणिकोश का रचना काल संवत् १९२६ है ।
कथा महोदधि- - इसे 'कर्पूरकथामहोदधि' तथा 'कर्पूर प्रकर' या 'सूक्तावली' भी कहते हैं । इसमें १५० कथाएँ संगृहीत हैं ।" इन कथाओं में धार्मिक तथा नैतिक सिद्धान्तों की विवेचना मुखर है । इसकी रचना वि० सं० १५०४ में तपागच्छीय रत्नशेखरसूरि के शिष्य सोमचन्द्र गणि ने की है।
भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति - प्राचीन जैन साहित्य में निर्दिष्ट धार्मिक
१. वसुबाण रुद्दसंखे १९५८ वच्चन्ते विक्कमाओ कालम्मि । लिहिओ पढमम्मि य पोत्थयम्मि गणिअमलचन्देण ||
- प्रशस्ति ।
२. (i) आत्मानंद जैन ग्रन्थ-माला में मुनि पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित सन् १९४४ में प्रकाशित, प्राकृत साहित्य का इतिहास, डा० जगदीशचन्द्र जैन, पृष्ठ ४४८-४५२ ।
(ii) जिनरत्नकोश, पृष्ठ ६६ ।
३. प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी, १६६२ ।
४. अक्खाणयमणिकोसं एवं जो पढाइ कुणइ जहयोगं । साहियं अरा सो लहइ अपवग्गं ॥
५. (i) जिनरत्नकोश, पृष्ठ ६८ । (ii) हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९१६ । ६. इन कथाओं की सूची पिटरसन रिपोर्ट ३, पृष्ठ ३१६-३१६ में दी गई है ।
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