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________________ २४० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा उस बीभत्स दृश्य से पत्थर का हृदय भी द्रवित हो जाता, पर चुलनीपिता अडिग रहे। दूसरी बार मझले पुत्र की भी वही स्थिति की तो भी वह साधना से चलित नहीं हुआ। तीसरी बार भी उस देव ने तीसरे पूत्र को समाप्त कर दिया तो भी चुलनीपिता मेरु की तरह अडिग रहा । चौथी बार देव ने उसकी ममतामयी माता की हत्या करनी चाही, तब उसके धैर्य का बाँध टूट गया। वह ऋद्ध होकर उस देव को पकड़ने के लिए उठा । देव अन्तर्धान हो गया। उसके हाथ में खम्भा आया और वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। भद्रा सार्थवाही उसकी आवाज को सुनकर चट से वहाँ पहुँचो और कहा-वत्स! वह देव माया थी। तुमने क्रोध करके व्रत का भंग किया है, इसीलिए प्रायश्चित्त करके शुद्ध बनो । माँ की आज्ञा को शिरोधार्य कर चुलनीपिता ने प्रायश्चित्त किया। साधक को प्रत्येक क्षण सावधान रहना चाहिए, यदि भूल हो जाये तो उसका परिष्कार करना चाहिए। चुलनीपिता ने उपासना के क्षत्र में उत्तरोत्तर विकास किया और अन्तिम समय में संलेखना-समाधिपूर्वक अनशन कर सौधर्म देवलोक में देव बना। प्रस्तुत कथानक में यह बताया गया है कि अध्यात्म की साधना माँ की ममता से भी बढ़कर है। जब साधक उस उच्च भूमिका पर पहुँच जाता है तो सांसारिक सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं । (उपासकदशांग अ. ३) सुरादेव सुरादेव भी वाराणसी का गाथापति था। उसके पास अठारह करोड़ स्वर्ण-मुद्रायें थीं। उसकी पत्नी का नाम धन्या था। भगवान महावीर के पावन-प्रवचन को श्रवण कर उसने व्रत ग्रहण किये । देव ने पाँच बार उसके पुत्रों को काटा, खौलते हुए पानी के कड़ाह में डाला और सुरादेव पर मांस छिड़का तो भी सुरादेव विचलित नहीं हुआ तब देव ने उसके शरीर में सोलह महारोग उत्पन्न करने की धमकी दी, जिससे सुरादेव विचलित हो उठा । उसने देव को पकड़ने के लिए हाथ फैलाया, देव आकाश में लुप्त हो गया। सुरादेव की चिल्लाहट को सुनकर उसकी पत्नो वहाँ आई और उसने कहा-पतिदेव ! यह देव उपसर्ग था । आप अपना व्रत खण्डित नहीं करें। उसने भूल का प्रायश्चित्त किया। बीस वर्ष तक श्रावक व्रतों का निरतिचार पालन कर सौधर्म देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ। (उपासक दशांग अ. ४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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