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श्रमणोपासक कथाएँ २३६ से बीधा और पैरों से रौंदा तथापि कामदेव अपनी साधना में अडिग रहा। फिर उसने उग्र विषधर का रूप धारण कर तीव्र डंक का प्रहार किया पर कामदेव चलित नहीं हुआ। वह देव कामदेव श्रावक के चरणों में गिर पड़ा। तुम धन्य हो ! जैसा इन्द्र ने तुम्हारा गुणानुवाद किया, उससे भी तुम बढ़कर निकले । कामदेव ने उपसर्ग को समाप्त हुआ जानकर ध्यान आदि से निवृत्ति ली। उसने सुना-भगवान् महावीर का शुभागमन हुआ है। वह दर्शन के लिए पहुँचा। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी प्रभु महावीर ने कहाकामदेव ! क्या देव ने तुम्हें इस प्रकार रात्रि को उपसर्ग दिये थे?
भन्ते ! आपका कथन यथार्थ है।
भगवान् ने साधु-साध्वियों को सम्बोधित कर कहा- कामदेव गृहस्थ होते हुए भी इतना दृढ़ रहा, अतः तुम्हें भी इससे शिक्षा लेनी चाहिए। सारी सभा स्तम्भित हो गई। कामदेव उत्तरोत्तर साधना-पथ पर बढ़ता गया। बीस बर्ष तक श्रमणोपासक के व्रतों का पालन कर, अंतिम समय में संलेखना तथा अनशन कर वह सौधर्म देवलोक में देव बना।
प्रस्तुत कथानक का सार यही है कि उपसर्ग उपस्थित होने पर भी हिमालय की चट्टान की तरह व्रतों के पालन में सुदृढ रहना चाहिए, विघ्न साधना की कसौटी है। "श्रयांसि बहु विघ्नानि"-श्रेष्ठ कार्यों में बहत से विघ्न आते है, पर जो उन बाधाओं को पार कर जाता है, वही महान् बनता है। (उपासकदशांग अ० २) झुलनीपिता
चुलनीपिता वाराणसी का गाथापति था । उसकी पत्नी श्यामा थी। चौबीस करोड़ स्वर्ण मुद्रायें उसके पास थीं तथा दस-दस हजार गायों के आठ गोकूल थे। जब भगवान महावीर वाराणसी पधारे, तो उनके उपदेश को श्रवणकर चुलनीपिता ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये। एक बार वह पौषधशाला में उपासनारत था । एक देव हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए वहाँ प्रगट हुआ और कहा-तुम वतों को छोड़ दो, नहीं तो तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को लाकर तुम्हारे सामने ही टुकड़े-ठकड़े कर दंगा। खौलते हए पानी में उसका मांस पकाकर तुम्हारे शरीर पर छिटकंगा। पुत्र के प्रति पिता की सहज ममता होती है, पर वह अविचल रहा । देव का क्रोध उबल पड़ा, उसने देवमाया से वैसा ही कर बताया।
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