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________________ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा भगवान् ने कहा- गौतम ! आनन्द का कथन ठीक है ! तुम आलोचना करो और आनन्द से क्षमायाचना भी । २३८ गौतम सरलता साधक थे । उन्होंने अपने दोष की आलोचना की और जाकर आनन्द से क्षमायाचना की। जैन दर्शन का यह महान आदर्श है कि व्यक्ति बड़ा नहीं, सत्य बड़ा है । सत्य के प्रति हर किसी को अभिनत होना ही चाहिए | आनन्द उज्ज्वल परिणामों में उत्तरोतर दृढ़-दृढ़तर होते गये और सौधर्म देवलोक में देव बने । प्रस्तुत कथानक में आनन्द श्रावक के उपासनामय जीवन का शब्द चित्र है । उस समय भारत की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी । आनन्द के पास विशाल भूमि और बृहत पशुधन था और स्वर्णमुद्राओं के भी अम्बार लगे हुए थे । वे आधुनिक धनवानों की तरह नहीं थे, जो बिना सुरक्षित पूँजी के भी अन्धाधुन्ध व्यापार करते हों । वे अपनी पूँजी का तृतीयांश भाग पहले से ही सुरक्षित रखते थे, जिसमे तनाव की स्थिति पैदा न हो । जीवन की सांध्य वेला में वे अपना उत्तरदायित्व पुत्र को देकर पूर्णतया साधना में जुट जाते थे । उनकी साधना के लिए स्वतन्त्र पोषधशालायें होती थीं । जहाँ जागरूक होकर साधनामय जीवन जीते हुए सहर्ष मृत्यु को वरण करते थे । आज के श्रावक उनके जीवन से पाठ ग्रहण करें तो जीवन सुख और शान्ति का सरसब्ज बाग लहलहा सकता है । में कामदेव गाथापति- कामदेव चम्पा नगरी का निवासी था, उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । उसके पास छह करोड़ स्वर्णमुद्रायें स्थाई पूँजी के रूप थीं, छह करोड़ स्वर्णमुद्रायें व्यापार में लगी हुई थीं और छह करोड़ स्वर्णमुद्रायें घर आदि के कार्यों में लगी हुई थीं । दस-दस हजार गायों के छह गोकुल थे । उसका पारिवारिक जीवन सुखी था । राजकीय क्षेत्र में भी उसकी भारी प्रतिष्ठा थी । भगवान् महावीर के उपदेश को श्रवण कर कामदेव ने व्रत ग्रहण किये और अन्त में पुत्र को गृहभार सम्हलाकर स्वयं पौषधशाला में तन्मयता से साधना करने लगा | उसकी साधना में विघ्न डालने के लिए एक मिथ्यात्वीदेव आया । उसने पहले विकराल रूप बनाकर कामदेव को भयभीत करने का प्रयास किया और स्पष्ट शब्दों में कहा- तुम उपासना को छोड़ दो । पर कामदेव अविचल रहा । शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने का भी प्रयास किया, उन्मत्त हाथी बनकर कामदेव को आकाश में उछाला, दाँतों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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