________________
श्रमणोपासक कथाएँ
२३७
लगा-मैं जिस सामाजिक स्थिति में हूँ, अनेक विशिष्ट उत्तरदायित्व मैंने ले रखे हैं। जिसमें मैं अपने जीवन का अधिक समय धर्माराधना में नहीं लगा सकता। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को सामाजिक दायित्व सौंपा और स्वयं को कौटुम्बिक और सामाजिक जीवन से पृथक कर लिया। वह कोल्लाकसन्निवेश में स्थित पोषधशाला में धर्मोपासना करने लगा। उसने क्रमशः श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की। उग्र तपोमय जीवन व्यतीत करने से उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया। एक दिन पुनः धर्म चिन्तन करते हुए उसके मन में यह विचार आया-अब मेरा शरार बहुत ही कृश हो गया है। मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि जीवन भर के लिए अन्न-जल का परित्याग कर शान्त चित्त से अपना अन्तिम समय व्यतीत करू। तदनुसार वह आत्मचिन्तन में लीन हो गया। अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ।
भगवान महावीर वाणिज्य ग्राम में पधारे । गणधर गौतम ने भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए सुना कि आनन्द श्रावक को संथारे में अवधिज्ञान हुआ है । वे आनन्द के पास पहुँचे । आनन्द श्रावक का शरीर इतना क्षीण हो चुका था कि इधर से उधर होना भी उसके लिए शक्य नहीं था। गौतम से सन्निकट पधारने की प्रार्थना की, जिससे वह सविधि वन्दन कर सके। आनन्द ने सभक्ति वन्दन कर पूछा-क्या गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?
हाँ ! हो सकता है । गौतम ने उत्तर दिया।
भगवन् ! मुझे भी अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। मैं उसके द्वारा पूर्व की ओर लवण समद्र में ५०० योजन तक अधोलोक में लोलुपाच्युत नरक तक, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवन्त वर्षधर पर्वत तक, उदिशा में सौधर्म कल्प-प्रथम देवलोक तक, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा म पाँच-सौ, पाँच-सौ योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र जानने लगा हूँ।
गौतम ने कहा-आनन्द ! अवधिज्ञान तो हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं । अतः तुम आलोचना कर प्रायश्चित्त लो।
आनन्द-जिनशासन में सत्य की भी आलोचना की जाती है ? गौतम-नहीं।
आनन्द-तो भगवन् ! मैंने असत्य नहीं कहा है । गौतम भगवान् के चरणों में पहुँचे और सारा वृत्तान्त सुनाया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org