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२३६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा विपाक, निशीथभाष्य, आदि में भी सोलह प्रकार की व्याधियों का उल्लेख है, पर नामों में पृथकता है। चरक संहिता में भी आठ महारोगों का वर्णन है।
आसक्ति और आतध्यान में नन्द मणियार मृत्यु को वरण करता है और उसी वापी में 'दर्दुर' बनता है। कुछ समय के पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के आगमन की बात को सुनकर उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो आता है और वह दर्दूर भगवान् को वन्दन के लिए चलता है। घोड़े की टाप से वह घायल हो गया, संथारा कर वह वहाँ से स्वर्ग का अधिकारी बना।
प्रस्तुत कथानक में इस बात पर बल दिया गया है कि सदगुरु के समागम से आत्मिक गुणों की वृद्धि होती है और आसक्ति से पतन होता है। आसक्ति आबाद जीवन को बाद कर देती है। आनन्द गाथापलि
उपाशकदशा अध्ययन पहले में आनन्द गाथापति का वर्णन हैश्रमण भगवान महावीर के श्रमणोपासकों में आनन्द श्रमणोपासक शीर्षस्थ स्थान है । वह लिच्छवियों की राजधानी 'वैशाली' के सन्निकट वाणिज्य ग्राम में रहता था। उसके पास विराट वैभव था । आधुनिक युग की भाषा में वह अरबपति था। कृषि उसका मुख्य व्यवसाय था। उसके यहाँ दसदस हजार गायों के चार गोकुल थे। आनन्द गाथापति की समाज में बहुत ही प्रतिष्ठा थी। सभी वर्ग के लोगों में उसका सन्माननीय स्थान था। विलक्षण प्रतिभा का धनी होने के कारण जन-मानस का उसके प्रति अत्यधिक विश्वास था, जिससे वे अपनी गोपनीय बात भी उसके सामने प्रकट कर देते थे। उसकी धर्मपत्नी का नाम 'शिवानन्दा' था। वह पतिपरायणा थी । भगवान् महावीर के उपदेश से प्रभावित होकर उसने श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण किये। उसने शिवानन्दा को भी प्रेरणा दी। शिवानन्दा ने भी श्रावक व्रत स्वीकार किये । धर्माराधना करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में वह धर्म चिन्तन करते हुए सोचने
१ वातव्याधिरपस्मारी, कुष्टी शोफी तथोदरी । गुल्मी च मधुमेही च, राजयक्ष्मी च यो नरः ।।
-~चरक संहिता, इन्द्रिय स्थान ६.
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