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श्रमणोपासक कथाए
२३५.
स्थविरों का उत्तर यथार्थ है ? भगवान् ने कहा-पूर्ण यथार्थ है । इससे यह सिद्ध है कि भगवान महावीर और भगवान् पार्श्वनाथ की आचारसंहिता में तो भेद था, किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टियों से दोनों परम्पराओं में मतभेद नहीं था। यहाँ तक कि संद्धान्तिक दृष्टि से किसी भी तीर्थकर के शासन में मतभेद नहीं होता। नन्द मणियार--
ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम श्रुतस्कन्ध के तेरहवें अध्ययन में नन्द मणि-. यार का कथानक है
भगवान महावीर का राजगृह में पदार्पण हआ। दर्दू रावतंस विमान का वाती 'दर्दुर' नामक देव वहाँ आया। उसने बत्तीस प्रकार के नाटक किये । गणधर गौतम ने भगवान से प्रश्न किया। प्रभु ने कहा- राजगृह नगर में नन्द नामक मणियार था । मेरा उपदेश श्रवण कर वह श्रमणोपासक बना, किन्तु चिरकाल तक साधु समागम नहीं होने से और मिथ्यात्वियों के निकट सम्पर्क में रहने से वह मिथ्यात्वी बन गया तथापि तप आदि क्रियायें पूर्ववत् ही चल रही थीं। एक दिन वह भीष्म-ग्रीष्म ऋतु में अष्टम भक्त तप की आराधना कर रहा था। उसे तीव्र भूख-प्यास सताने लगी। उसके मन में ऐसी भावना हुई-वापिका और बगीचे आदि का निर्माण करूंगा। दूसरे दिन पौषध आदि से निवृत्त होकर वह राजा के पास पहँचा। अनुमति प्राप्त कर उसने सुन्दर वापिका बनवाई, बगीचे लगवाये, चित्रशाला, भोजनशाला, चिकित्सालय, अलंकारशाला आदि का निर्माण करवाया। उनका लोग उपयोग करने लगे और नन्द मणियार की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। वह प्रशंसा सुनकर हर्षित हुआ, उसकी उनके प्रति गहरी आसक्ति हो गई। नन्द मणियार के शरीर में सोलह महारोग पैदा हो गये । उनके नाम इस प्रकार हैं
(१) श्वास (२) कास-खांसी (३) ज्वर (४) दाह-जलन (५) कुक्षिशूल (६) भगन्दर (७) अर्श-बबासीर (८) अजीर्ण (8) नेत्रशूल (१०) मस्तकशुल (११) भोजन विषयक अरुचि (१२) नेत्र वेदना (१३) कर्ण वेदना (१४) कंडू-खाज (१५) दकोदर जलोदर (१६) कोढ़ ।
आचारांग में1 १६ महारोगों के नाम दूसरे प्रकार से मिलते हैं।
१ आचारांग ६-१-१७३.
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