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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
था। वे निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही अर्थ वाला मानते थे और शेष सभी को अनर्थ वाला । वे इतने अधिक उदार थे कि उनके द्वार सदा-सर्वदा खुले रहते थे। उनका चरित्र इतना निर्मल था कि बिना रोकटोक के राजा के अन्तःपुर में भी वे प्रविष्ट हो सकते थे तथापि किसी को अप्रतीति नहीं होती थी। वे अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को पूर्ण पोषधोपवास करते थे । निर्ग्रन्थों को निर्दोष अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज-इन सभी का दान देते थे।
एक बार भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के स्थविर भगवन्त वहाँ पधारे। यह सुनकर तुंगिया नगरी के श्रावक प्रमुदित हुए। वे स्थविर भगवन्तों के पास पहुँचे। उन्होंने पाँच अभिगम किए--(१) सचित्त द्रव्य - फूल ताम्बूल आदि का त्याग (२) अचित द्रव्य-वस्त्र आदि का मर्यादित करना (३) एक पट के (बिना सीये हुए) दुपट्ट का उत्तरासंग करना। (४) साधुमुनिराज के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर लगाना (५) मन को एकाग्र करना।
__इस प्रकार पाँच अभिगम करके वे स्थविर भगवन्तों के पास जाकर तीन बार प्रदक्षिणा कर पर्युपासना करने लगे। इसके पश्चात् स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों को चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। श्रमणोपासकों ने स्थविर भगवन्तों से पूछा-संयम और तप का फल क्या है ? उन्होंने कहा-आस्रव से मुक्त होना । पुनः प्रश्न किया गया-यदि संयम और तप का फल अनास्रव है तो फिर संयमी साधक देवलोक में क्यों उत्पन्न होते हैं ? स्थविरों ने समाधान दिया-संयम के साथ राग-द्वेष आदि कषाय विद्यमान हैं, उसके कारण वे देव बनते हैं अर्थात् सरागसंयम संयमासंयम, बाल तपोकर्म और अकामनिर्जरा आदि कारणों से वे देव होते हैं । स्थविरों के उत्तर से श्रमणोपासक सन्तुष्ट हुए । इससे यह स्पष्ट है कि तुगियानगरी के श्रावकों का जीवन एक आदर्श श्रावक का जीवन था। उनके जीवन में वे सभी सद्गुण मुखरित हुए हैं, जो एक श्रावक के जीवन में अपेक्षित हैं।
गणधर गौतम राजगृह में भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए, तुगियानगरी के श्रावकों ने पापित्य स्थविरों से जो प्रश्न पूछे और जो उन्होंने उत्तर दिये, उसे सुना। उन्होंने भगवान् महावीर से पूछा-क्या
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